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________________ को अधिक महत्व दिया है । आलारकलामसुत्त में बुद्ध स्पष्टरूप में कहते हैं कि हे कलाम ! तुम मेरी बात को केवल इसलिए सत्य स्वीकार मत करो कि इनको कहने वाला व्यक्ति तुम्हारी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र है ।" अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में प्रत्येक बात को तर्क की तराजू पर तौल कर और अनुभव की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करना चाहिए । बुद्ध अन्य विचारकों की वैचारिक स्वतंत्रता का कभी हनन करना नहीं चाहते हैं । इसके विपरीत वे हमेशा कहते हैं कि जो कुछ हमने कहा है उसको अनुभव की कसौटी पर कसो और सत्य की तराजू पर तौलो और यदि वह सत्य लगता है तो उसे स्वीकार करो । बुद्ध के शब्दों में हे कलाम ! जब तुम आत्म अनुभव से जानलो ये बातें कुशल हैं निर्दोष हैं, इनके आधार पर चलने से सुख होता है तभी इन्हें स्वीकार करो अन्यथा नहीं ।" बुद्ध आस्था प्रधान धर्म के स्थान पर तर्क प्रधान धर्म का व्याख्यान करते हैं और इस प्रकार के धार्मिक मतान्धता और वैचारिक दुराग्रहों से व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं। एक अन्य बौद्धग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में कहा गया है कि जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर काटकर भेदकर और कसकर परीक्षा की जाती है । हे भिक्षुओं उसी प्रकार धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए ।" उसे केवल शास्ता के प्रति आदर के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए । वस्तुतः धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास या आस्था का नियन्त्रक नहीं माना जाएगा तब तक हम धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जानी वाली होलियों से मानवजाति को नहीं बचा सकेंगे। धर्म के लिए श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और व्याख्याओं को विवेक की तराजू पर तौला जाये और युगीन संदर्भ में उनका मूल्यांकन किया जाये। जब तक यह नहीं होता तब तक धार्मिक जीवन में आई संकीर्णता का मिटा पाना संभव नहीं । विवेक ही ऐसा तत्व है जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है, किन्तु उसके विवेक का अनुगामी होना चाहिए । आज आवश्यकता बौद्धिक धर्म की है और बुद्ध ने बौद्धिक धर्म का सन्देश देकर हमें धार्मिक मतान्धताओं और धार्मिक आग्रहों से ऊपर उठने का सन्देश दिया है। बुद्ध का मध्यममार्ग धर्मनिरपेक्षता का आधार बुद्ध ने अपने दर्शन को मध्यमार्ग की संज्ञा दी है । जिस प्रकार नदी की धारा कूलों में न उलझकर उनके मध्य से बह लेती है, उसी प्रकार बौद्धधर्म भी एकान्तिक दृष्टियों से बचकर अपनी यात्रा करता है । मध्यममार्ग का एक आशय यह भी है कि यह किसी भी दृष्टि को स्वीकार नहीं करता है । सांसारिक सुखभोग और देहदण्डन की प्रक्रिया दोनों ही उसके लिए एकान्तिक हैं एकान्तों के त्याग में जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 654
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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