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________________ 1. जैन और बौद्ध दर्शन दोनों ही दो प्रमाण मानते हैं, किन्तु जहाँ जैनदर्शन प्रमाण के इस द्विविध वर्गीकरण में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों का उल्लेख करता है, वहाँ बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण स्वीकार करता है । इस प्रकार प्रमाण के द्विविधवर्गीकरण के संबंध में एकमत होते हुए भी उनके नाम और स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। दोनों दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण तो समान रूप से स्वीकृत हैं, किन्तु दूसरे प्रमाण के रूप में जहाँ बौद्ध अनुमान का उल्लेख करते हैं, वहाँ जैन परोक्ष प्रमाण का उल्लेख करते हैं और परोक्ष प्रमाण के पाँच भेदों में एक भेद अनुमान प्रमाण मानते हैं । प्रत्यक्ष के अतिरिक्त परोक्षप्रमाण में वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम को भी प्रमाण मानते हैं । जहाँ तक अन्य दर्शनों का प्रश्न है वैशेषिक दो, सांख्य तीन, न्याय चार, मीमांसा (प्रभाकर) पांच, वेदांत एवं भाट्ट मीमांसक छह प्रमाण मानते हैं । 2. बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण नामक दो प्रमेयों के लिए दो अलग-अलग प्रमाणों की व्यवस्था की गई है, क्योंकि उनके अनुसार स्वलक्षण का निर्णय निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है, किन्तु जैन दर्शन वस्तुतत्त्व को सामान्यविशेषात्मक मानकर यह मानता है कि जिस प्रमेय को किसी एक प्रमाण से जाना जाता है उसे अन्य - अन्य प्रमाणों से भी जाना जा सकता है । अर्थात् सभी प्रमेय सभी प्रमाणों के विषय हो सकते हैं, जैसे अग्नि को प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों से जाना जा सकता है। इस आधार पर विद्वानों ने बौद्धदर्शन को प्रमाणव्यवस्थावादी और जैनदर्शन को प्रमाणसंप्लववादी कहा है । 3. प्रमाणलक्षण के संबंध में भी दोनों में कुछ समानताएँ और कुछ मतभेद । प्रमाण की अविसंवादकता दोनों को मान्य है, किन्तु अविसंवादकता के तात्पर्य को लेकर दोनों में मतभेद है । जहाँ जैनदर्शन अविसंवादकता का अर्थ ज्ञान में आत्मगत संगति और ज्ञान और उसके विषय (अर्थ) में वस्तुगत संगति और उसका अन्य प्रमाणों से अबाधित होना मानता है, वहीं बौद्धदर्शन अविसंवादकता का संबंध अर्थक्रिया से जोड़ता है । बौद्धदर्शन में अविसंवादकता का अर्थ है अर्थक्रियास्थिति, अवंचकता और अर्थप्रापकता । इस प्रकार दोनों दर्शनों में अविसंवादिता का अभिप्राय भिन्न-भिन्न है। दूसरे बौद्धदर्शन में अविसंवादिता को सांव्यवहारिक स्तर पर माना गया है जबकि जैन दर्शन का कहना है कि अविसंवादिता पारमार्थिक स्तर पर होना चाहिए। बौद्धों के प्रमाण के दूसरे लक्षण अनधिगत अर्थ का ग्राहक होना, अकलंक आदि कुछ जैन दार्शनिकों को तो मान्य है, किन्तु विद्यानन्द आदि कुछ जैन दार्शनिक इसे प्रमाण का आवश्यक लक्षण नहीं मानते हैं । मीमांसक अपूर्व को प्रमाण का आवश्यक लक्षण मानते हैं । बौद्ध धर्मदर्शन 625
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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