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________________ किया है वहीं दूसरी ओर वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, व्योमशिव तथा जैन चिन्तक अकलंक और विद्यानन्द ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के मन्तव्यों की समीक्षा की है। धर्मकीर्ति के पूर्व जहाँ बौद्ध दार्शनिकों का बौद्धदर्शन की समीक्षा का आधार दिङ्नाग का प्रमाण समुच्चय रहा था वहीं परवर्तीकाल में धर्मकीर्ति का प्रमाणवार्तिक बन गया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में बौद्धेतर दार्शनिक बौद्ध-ग्रंथों IT और बौद्ध दार्शनिक बौद्धेतर दार्शनिकों के ग्रंथों का अध्ययन करते थे । ज्ञातव्य है कि धर्मकीर्ति के अन्य भी प्रमुख ग्रन्थ न्यायबिन्दु, प्रमाणविनिश्चय, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, वादन्याय आदि रहे हैं । जिनमें नैयायिकों, मीमांसकों एवं जैन उपस्थापनाओं की समीक्षा मिलती है । धर्मकीर्ति के पश्चात् बौद्धन्याय के क्षेत्र में धर्मोत्तर और अर्चट के नाम आते हैं । जैन ग्रंथ प्रमाणनय-तत्वालोक के टीकाकार रत्नप्रभसूरि ने 'रत्नाकर अवतारिका' में शब्दार्थ सम्बन्ध के संदर्भ में नैयायिकों, मीमांसकों, और वैयाकणिकों के मतों की समीक्षा धर्मोत्तर के नाम से की। इसी प्रकार रत्नप्रभसूर ने अर्चट के नाम का भी निर्देश किया है । ज्ञातव्य है कि अर्चट आचार्य हरिभद्र के समकालीन प्रतीत होते हैं । धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दु पर अर्चट की टीका बौद्धप्रमाणशास्त्र के लिये आधारभूत मानी जाती रही है । ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ के बौद्ध दर्शनिकों ने अपनी समालोचना का विषय मुख्य रूप से न्याय दर्शन को बनाया था, किन्तु अर्चट की हेतु - बिन्दु टीका में जैन दर्शन के स्याद्वाद सिद्धान्त का पैंतालीस पद्यों में खण्डन किया है। इसी प्रकार अर्चट ने द्रव्य एवं पर्याय की कथंचित् अव्यतिरेकता का प्रतिपादन करने वाले समन्तभद्र की ' आप्त-मीमांसा' के श्लोक का भी खण्डन किया है। इसी प्रकार अर्चट ने तत्वार्थसूत्र के " उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" की समीक्षा करते हुए सत् को क्षणिक सिद्ध किया । बौद्ध दर्शनिकों के क्रम में आगे शान्तरक्षित और कमलशील के नाम आते है । शान्तरक्षित का आठवीं शती का तर्कसंग्रह बौद्धन्याय की एक महत्वपूर्ण कृति है । शान्तरक्षित ने अपने तत्वसंग्रह में अविद्धकर्ण शंकरस्वामी, भावीविक्त तथा जैन दार्शनिक सुमति और पात्रस्वामी के मन्तव्यों को उपस्थापित कर उनका खण्डन किया है । इसी प्रकार शान्तरक्षित के तत्व संग्रह पर कमशील की पंजिका में भी जैन दार्शनिक सुमति एवं पात्रस्वामी के मतों की समीक्षा मिलती है। दुर्वेकमिश्र का बौद्धन्यायशास्त्र के रचयिताओं में अन्तिम नाम आता है। इनकी हेतुबिन्दुटीका - लोक, धर्मोत्तरप्रदीप, और न्यायबिन्दुटीका प्रमुख ग्रंथ है। हेतु बिन्दुटीकालोक में दुर्वेकमिश्र ने जैन मन्तव्यों की समीक्षा की है । इस प्रकार ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक भारत में बौद्धदर्शन एवं न्याय के अनेक ग्रंथों की रचना हुई इनमें जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने धर्मदर्शन 613
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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