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________________ शून्यवाद के आधारभूत चतुष्कोटि विनिमुक्त तत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करती है, वहाँ विग्रह व्यावर्तिनी माध्यमिक परम्परा की प्रमाण मीमांसा का आधारभूत ग्रंथ है। जहाँ माध्यमिक कारिका में नागार्जुन ने सत, असत, उभय और अनुभय इन चार कोटियों से भिन्न परमतत्त्व (शून्यतत्त्व) के स्वरूप का निरूपण किया है, वहीं विग्रह व्यावर्तिनी में उन्होंने न्यायसूत्र के प्रमाणों की गंभीर समीक्षा की है। इस ग्रंथ में नागार्जुन ने न्यायदर्शन द्वारा मान्य चार प्रमाणों का उपस्थापन कर उनका खण्डन किया है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नागार्जुन न्यायसूत्र एवं उसकी विषय वस्तु से परिचित थे, क्योंकि उन्होंने न्यायसूत्र में प्रतिपादित प्रमाणों को अपनी समीक्षा का आधार बनाया था। न्यायदर्शन में नागार्जुन के इस खण्डन का प्रत्युत्तर परवर्ती कालीन न्याय दार्शनिकों द्वारा न्यायसूत्रों की टीकाओं में दिया गया। विशेष रूप से उद्योतकर (छटीशती उत्तराध) एवं वाचस्पति मिश्र (9वीं शती उत्तराध) ने अपने ग्रंथों में नागार्जुन के इन मन्तव्यों का खण्डन किया है। नागार्जुन के पश्चात् मैत्रेय ने बौद्ध विज्ञानवाद पर अपने ग्रंथों की रचना की। इसमें बोधिसत्वचर्या निर्देश, सप्तदशाभूमि, अभिसमय-अलङ्कारिका आदि प्रमुख हैं। सप्तदशा भूमिशास्त्र में मैत्रेय ने वाद विषय, वादाधिकरण, वादकरण आदि के निरूपण के साथ-साथ सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साधर्म्य, वैधर्म्य, अनुमान एवं आगम ऐसे आठ प्रमाणों का उल्लेख किया। ज्ञातव्य है कि मैत्रेय ने गौतम द्वारा प्रणीत न्यायसूत्र के उपमान प्रमाण का कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी वे जिन आठ प्रमाणों का उल्लेख करते हैं वे न्यायदर्शन से अवतरित प्रतीत होते हैं। नागार्जुन एवं मैत्रेय के पश्चात् बौद्ध विज्ञानवाद के प्रतिष्ठित आचार्यों में असंग और वसुबन्धु-इन दोनों भाइयों का नाम आता है। असंग की रचनाओं में "योगाचारभूमिशास्त्र' एक प्रमुख ग्रंथ है। योगाचारभूमिशास्त्र में उन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-ये तीन प्रमाण ही स्वीकार किये हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त साधर्म्य एवं वैधर्म्य को अनुमान का ही अंग माना है। इस प्रकार असंग अपनी प्रमाण व्यवस्था में किसी सीमा तक न्याय दर्शन से निकटता रखते हैं। यद्यपि इनकी व्याख्याओं को लेकर इनका न्यायदर्शन से स्पष्ट मतभेद भी देखा जा सकता है। ___ असंग एवं वसुबन्धु (ईसा की पाँचवी शताब्दी) के पश्चात् बौद्ध परंपरा में दिङ्नाग का स्थान आता है। दिङ्नाग के पूर्व बौद्धन्यायशास्त्र पर आंशिक रूप से गौतम के न्याय सूत्र का प्रभाव देखा जाता है, किन्तु दिङ्नाग ने बौद्धन्याय को एक नवीन दिशा दी। परवर्ती काल में नैयायिकों मीमांसकों और जैन आचार्यों ने दिङ्नाग के मन्तव्यों को ही अपनी आलोचना का आधार बनाया है। न्यादर्शन में उद्योतकर बौद्ध धर्मदर्शन 611
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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