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और गीता में हिंसापरक यज्ञों के स्थान पर प्राणीमात्र की सेवारूप भूत-यज्ञ का प्रतिपादन और तीर्थ, स्नानादि अनेक वैदिक कर्मकाण्डों को आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान करना वैदिकधारा के श्रमणधारा के साथ समन्वित होने का परिणाम था।
यह भारतीय श्रमण धारा भी कालान्तर में विभिन्न रूपों में विभाजित होती रही है। इसके कुछ संकेत हमें प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रन्थों से मिल जाते हैं। प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन जैन ग्रन्थ इसीभासियाइँ एवं सूत्रकृतांग और बौद्धग्रन्थ थेरगाथा एवं सुत्तनिपात में अनेक औपनिषदिक ऋषियों का सम्मान-पूर्वक उल्लेख मिलता है। इसिभासियाइँ में जो पैतालीस ऋषियों के उल्लेख हैं, उनमें नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, आरूणी, उद्दालक आदि औपनिषदिक ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर उन्हें अपनी श्रमण परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है, इसी प्रकार सूत्रकृतांग में असितदेवल, पाराशर, रामपुत्र आदि को आचारगत विभिन्नता के बावजूद भी अपनी परम्परा के सम्मत एवं सिद्धि को प्राप्त बताया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रमणधारा भारतीय चिन्तन की एक व्यापक धारा रही है। जैन ग्रन्थों में पाँच प्रकार के श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं - (1) निर्ग्रन्थ (2) शाक्यपुत्रीय (बौद्ध) (3) आजीवक (4) गैरिक और (5) तापस। तापसों एवं गैरिक (गेरूआ वस्त्रधारी संन्यासियों) को श्रमण कहना इस बात का प्रमाण है, हिन्दूधर्म में सन्यास मार्ग का जो विकास हुआ है, वह श्रमणधारा का ही प्रभाव है। तापसों और गैरिकों की यह परम्परा ही सम्भवतः सांख्य और योगदर्शन की जनक और उन का ही पूर्वरूप हो।
___भारतीय श्रमण धारा से विकसित बौद्ध परम्परा के अस्तित्व के उल्लेख हमें वेदों एवं उपनिषदों में तो नहीं मिलते हैं किन्तु हिन्दू पुराणों में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उल्लेख हैं। इसके विपरीत जैन आगमों में प्राचीन काल से ही बौद्धों के उल्लेख मिलने लगते हैं। जहाँ एक ओर पाली त्रिपिटक में निर्ग्रन्थों, आजीवकों और तापसों के उल्लेख मिलते हैं, वहीं जैन ग्रन्थों में भी शाक्यपुत्रीय श्रमणों (बौद्धश्रमणों) के उल्लेख मिलते हैं। जैन ग्रन्थ ऋषिभासित में वज्जीयपुत्र, सारीपुत्र और महाकश्यप के उल्लेख उपलब्ध है। सूत्रकृतांग में उदकपेढाल- पुत्त का बौद्ध श्रमणों के साथ संवाद का एवं बौद्धों के पंचस्कन्धवाद एवं संततिवाद की सामान्य समीक्षा भी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार दीर्घनिकाय और सुत्तनिपात्त में बुद्ध के समकालीन छह तैर्थिकों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (महावीर) और मंखलि गोशालक प्रमुख हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ एक ओर भारतीय धर्म-दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों में प्राचीनकाल से ही बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उसकी तत्त्व-मीमांसा और
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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