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है कि पुद्गल द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है। प्रत्येक परमाणु में स्वभाव से एक रस, एक रूप, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रूक्ष में से कोई दो स्पर्श पाये जाते हैं।
जैन आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं- लाल, पीला, नीला, सफेद और काला। गंध दो हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच हैं- रिक्त, कटु, कसैला, खट्टा और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं- शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, मृदु और कर्कश हल्का और भारी। ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का
और भारी ये चार स्पर्श नहीं होते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं जब परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एक प्रदेशी होता है जबकि स्कंध मे दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध, स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु ये चार पुद्गल द्रव्य के विभाग हैं। इनमें परमाणु निरवयव है, आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से रहित बताया गया है। इसके विपरीत आदि और अन्त होते हैं। न केवल भौतिक वस्तुएँ अपितु शरीर, इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही खेल है। परमाणुओं से स्कन्ध कैसे बनते हैं इसकी विस्तृत चर्चा पुद्गल की अवधारणा के अन्तर्गत अलग से की गई है। काल द्रव्य
काल द्रव्य को अनस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत माना गया है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं- आगमिक युग तक जैन परम्परा में काल को स्वंतत्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद था। आवश्यकचूर्णि (भाग-1, पृ. 340-341) में काल के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न तीन मतों का उल्लेख हुआ है- 1. कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय रूप मानते हैं। 2. कुछ विचारक उसे गुण मानते हैं। 3. कुछ विचारक उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सातवीं शती तक काल के सम्बन्ध में उक्त तीनों विचारधाराएँ प्रचलित रहीं और श्वेताम्बर आचार्य अपनी-अपनी मान्यतानुसार उनमें से किसी एक का पोषण करते रहे, जबकि दिगम्बर आचार्यों ने एक मत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना। जो विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे, उनका तर्क यह था कि यदि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों (विभिन्न) अवस्थाओं में स्वतः ही परिवर्तित होते रहते हैं तो फिर काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने की क्या आवश्यकता है आगम में भी जब भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि काल क्या है? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि काल जीव-अजीवमय है अर्थात् जीव और
जैन तत्त्वदर्शन