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सर्वोच्च जीवन मूल्य है। एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ है कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए। प्रवतर्क धर्म जैविक मूल्यों पर बल देता है अतः स्वाभाविक रूप से वह समाजगामी बना, क्योंकि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति, जिसका एक अंग काम भी है, तो समाज-जीवन में ही सम्भव थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म समाज-विमुख और वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद उनकी पूर्ति या आपूर्ति किन्हीं अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह दैववादी और ईश्वरवादी बन गया। विश्व व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियंत्रक तत्त्वों के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थक होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगा कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है, अतः निवर्तक धर्म पुरूषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों में आस्था रखने लगा। अनीश्वरवाद, पुरूषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्म में अलौकिक दैवीय शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञ-योग) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त शुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्मकाण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना। श्रमण और वैदिक धाराओं की प्राचीनता का प्रश्न
यहाँ स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रमण धारा और वैदिक धारा में कौन प्राचीन है? ।
इस प्रश्न का उत्तर दो दृष्टियों से दिया जा सकता है -(1) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से और (2) ऐतिहासिक दृष्टि से।
जहां तक मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का प्रश्न है हमें यह स्वीकार करना होगा कि मानवीय सभ्यता और संस्कृति का एक कालक्रम में विकास हुआ है। मनुष्य प्रारंभ में एक विवेकशील विकसित प्राणी के रूप में ही प्रकृति पर आश्रित होकर अपना जीवन जीता था। उसमें सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना का विकास एक परवर्ती घटना है। अपने प्राकृत जीवन से सामाजिक जीवन और सामाजिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर उसका क्रमिक विकास हुआ है। जैन परम्परा की दृष्टि से भी विचार करें तो यौगलिक परम्परा से कुलकर परम्परा
बौद्ध धर्मदर्शन
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