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आरण्यकों और उपनिषदों के काल में ही श्रमण परम्परा के, इन तत्त्वों को वैदिक परम्परा में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। ईशवास्योपनिषद्, जो अथर्ववेद का अन्तिम परिशिष्ट भी है, सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के समन्वय का प्रयास ही है। औपनिषदिक चिन्तन निश्चित रूप से तप-त्याग मूलक, अध्यात्म और वैराग्य को अपने में स्थान देता है। उपनिषद् तप-त्याग मूलक अध्यात्मिक संस्कृति पर बल देते हुए प्रतीत होते हैं। मात्र यही नहीं वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति प्रश्नचिन्ह उपस्थित करने वाले भी वे ही प्रथम ग्रन्थ हैं। वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वय का जो प्रयत्न आरण्यकों एवं उपनिषदों ने किया था, वही गीता और महाभारत में विकसित एवं पल्लवित होता रहा है। उपनिषद्, गीता और महाभारत वैदिक और श्रमणधारा के सांस्कृतिक समन्वय स्थल हैं। उनमें प्राचीन वैदिक धर्म एक नया आध्यात्मिक स्वरूप लेता हुआ प्रतीत होता है। जिसे आज हम हिन्दू धर्म के रूप में जानते हैं।
साथ ही यह भी सत्य है कि निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा भी वैदिक धारों से पूर्णतः असम्प्रक्त नहीं रही है। श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे रूप में वैदिक धारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। यह सत्य है कि प्रारंभ में श्रमण धारा के आध्यात्म ने वैदिक धारा को प्रभावित किया। किन्तु कालान्तर में उसे भी वैदिक धारा के अनेक तत्त्वों को आत्मसात करना पड़ा है। श्रमणधारा में जो कर्मकाण्ड और पूजा पद्धति का विकास हुआ है वह वैदिक धारा से विकसित हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही है। अनेक हिन्दू देवी-देवता और उनकी पूजा-उपासना की पद्धति श्रमण परम्परा में आत्मसात कर ली गई। किस परम्परा ने किससे कितना और कब किन परिस्थितियों में आत्मसात कर ली गई। किस परम्परा ने किससे कितना और कब किन परिस्थितियों में ग्रहण किया है इसकी चर्चा आगे करेंगे। किन्तु यहां यह समझ लेना आवश्यक है। कि इन दोनों धाराओं का स्वतंत्र विकास कितना मनौवैज्ञानिक परिस्थितिक कारणों से हुआ है और वे क्यों और कैसे एक-दूसरे के तत्त्वों को ग्रहण करने के लिये विवश हुई अथवा इन दोनों धाराओं में पारस्परिक समन्वय की आवश्यकता क्यों हुई?
वैदिक और श्रमण धारा के उद्भव के मूल में किसी न किसी रूप में मानव अस्तित्व का वैविध्यतापूर्ण होना ही है। मानव अस्तित्व द्विआयामी और विरोधाभासपूर्ण है। वह स्वभावतः परस्पर दो विरोधी केन्द्रों के मध्य सन्तुलन बनाने का प्रयत्न करता रहता है। मनुष्य न केवल शरीर है और न केवल चेतना। शरीर के स्तर पर वह जैविक वासनाओं और इच्छाओं से प्रभावित है तो चेतना के स्तर पर वह विवेक से अनुशासित भी है। वासना और विवेक का यह अंर्तछन्द मनुष्य
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान