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कहलाते थे। सम्भवतः यह बौद्ध ग्रन्थों में सूचित उच्छेदवादी दृष्टि का कोई प्राचीनतम रूप था जो तार्किकता से युक्त होकर बौद्धों के शून्यवाद के रूप में विकसित हुआ होगा।
इस प्रकार ऋषिभाषित में आत्मा, पुनर्जन्म, धर्म-व्यवस्था एवं कर्म सिद्धान्त के अपलापक विचारकों का जो चित्रण उपलब्ध होता है उसे संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता हैं - 1. ग्रन्थकार उपरोक्त विचारकों को ‘उक्कल' नाम से अभिहित करता है जिसके
संस्कृत रूप उत्कल, उत्कुल अथव उत्कूल होते हैं। जिनके अर्थ होते हैं बहिष्कृत या मर्यादा का उल्लंघन करने वाला। इन विचारकों के संबंध में इस
नाम का अन्यत्र कहीं प्रयोग हुआ है ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता। 2. इसमें इन विचारकों के पांच वर्ग बताये गये हैं - दण्डोत्कल, रज्जूत्कल,
स्तेनोत्कल, देशोत्कल और सर्वोत्कल। विशेषता यह है कि इसमें स्कन्धवादियों (बौद्ध स्कन्धवाद का पूर्व रूप) सर्वोच्छेदवादियों (बौद्ध शून्यवाद का पूर्व रूप) और आत्म-अकर्तावादियों (अक्रियावादियों-सांख्य और वेदांत का पूर्व रूप) को भी इसी वर्ग में सम्मिलित किया गया हैं। क्योंकि ये सभी तार्किक रूप से कर्म सिद्धान्त एवं धर्म व्यवस्था के अपलापक सिद्ध होते हैं। यद्यपि आत्म-आकर्तावादियों को देशोत्कल कहा गया है अर्थात् आंशिक रूप से
अपलापक कहा गया हैं। 3. इसमें शरीर पर्यन्त आत्म-पर्याय मानने का, जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है,
वही जैनों द्वारा आत्मा को देह परिणाम मानने के सिद्धान्त का पूर्व रूप प्रतीत होता है। क्योंकि इस ग्रन्थ में शरीरात्मवाद का निराकरण करते समय इस कथन को स्वपक्ष में भी प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार इसमें जैन, बौद्ध और सांख्य तथा औपनिषदिक वेदांत की दार्शनिक मान्यताओं के पूर्व रूप या बीज परिलक्षित होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन मान्यताओं के सुसंगत बनाने
के प्रयास में ही इन दर्शनों का उदय हुआ है। 4. इसमें जो देहात्मवाद का निराकरण किया गया है वह ठोस तार्किक
आधारों पर स्थित नहीं है। मात्र यह कह दिया जाता है कि जीव का जीवन शरीर की उत्पत्ति और विनाश की काल सीमा तक सीमित नहीं हैं। इससे यह फलित होता है कि कुछ विचारक जीवन को देहाश्रित मानकर भी देहान्तर की सम्भावना अर्थात् पुनर्जन्म की सम्भावना को स्वीकार करते थे।
ऋषिभाषित में उत्कटवादियों (चार्वाकों) से सम्बन्धित अध्ययन के अंत में कहा गया है – एवं से सिद्धे बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताइणो पुणरवि 584
जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान