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कोई भी तंत्र चाहे वह अर्थतंत्र हो, राजतंत्र या धर्मतंत्र, बिना अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किये सफल नहीं हो सकता, क्योंकि इन सबका मूल केन्द्र तो मनुष्य ही है। जब तक वे मानव व्यक्तित्व की बहुआयामिता और उसमें निहित सामान्यतओं को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक इन क्षेत्रों में हमारी सफलताएं भी अन्ततः विफलताओं में ही बदलती रहेंगी। वस्तुतः अनेकान्त दृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमे अग्रसर कर सकती है। समग्रता की दिशा में अंगो की उपेक्षा नहीं, अपितु उनका पारस्परिक सामंजस्य ही महत्त्वपूर्ण होता है और अनेकान्तवाद का यह सिद्धान्त इसी व्यावहारिक जीवन दृष्टि को समुपस्थित करता है। अनेकान्ता को जीने की आवश्यकता
____ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही कि- अनेकान्त के व्यावहारिक पक्ष पर श्री नवीन भाई शाह की हार्दिक इच्छा, प्रेरणा और अर्थ सहयोग से मेरे निर्देशन में लगभग छः वर्ष पूर्व अहमदाबाद में जो संगोष्ठी हुई थी, उसमें प्रस्तुत कुछ महत्त्वपूर्ण निबन्ध अब प्रकाशित हो रहे हैं। अनेकांतवाद के सैद्धान्तिक पक्ष पर तो प्राचीन काल से लेकर अब तक बहुत विचार-विमर्श या आलोचन-प्रत्यालोचन हुआ किन्तु उसका व्यावहारिक पक्ष उपेक्षित ही रहा। यह श्री नवीन भाई की उत्कट प्रेरणा का ही परिणाम था कि अनेकान्त के इस उपेक्षित पक्ष पर न केवल संगोष्ठी और निबन्धप्रतियोगिता का आयोजन हुआ, अपितु इस हेतु प्राप्त निबन्धों या निबन्धों के चयनित अंश का प्रकाशन भी हो रहा है। अनेकांतवाद मात्र सैद्धान्तिक चर्चा का विषय नहीं है, वह प्रयोग में लाने का विषय है, क्योंकि इस प्रयोगात्मकता के द्वारा ही हम वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के संघर्षों एवं वैचारिक विवादों का निराकरण कर सकते हैं। अनेकांतवाद को मात्र जान लेना या समझ लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसे व्यावहारिक जीवन में जीना भी होगा और तभी उसके वास्तविक मूल्यवत्ता को समझ सकेंगे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव जाति को संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान