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________________ की योजना भी की गयी है। सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति प्रकरण (प्रथमकाण्ड गाथा ३६) में सांयोगिक भंगों की चर्चा की है। वहाँ सात भंग बनते हैं सात भंगों का स्पष्ट प्रतिपादन हमें समंतभद्र, कुन्दकुन्द और उनके परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्यों में मिलने लगता है। यह स्पष्ट है कि सप्तभंगी का सुव्यवस्थित रूप में दार्शनिक प्रतिपादन लगभग ५वीं शती के बाद ही हुआ है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके पूर्व भंगों की अवधारणा नहीं थी। भंगों की अवधारणा तो इसके भी पूर्व में हमें मिलती है किन्तु सप्तभंगी की एक सुव्यवस्थित योजना ५वीं शती के बाद अस्तित्व में आयी। स्याद्वाद एवं सप्तभंगी, अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति के प्रारूप है। अनेकांतवाद का सैद्धान्तिक पक्ष : स्याद्वाद स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण स्याद्वाद शब्द 'स्यात्' और 'वाद' अन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवतः उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ "शायद" “सम्भवतः", "कदाचित्" और अंग्रेजी भाषा में Probale, may be, perhaps, some how आदि लिया गया है। और इन्हीं अर्थों के आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चचयवाद समझने की भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है। किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनश्चिय समझने की भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है। किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनश्चियवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, दूसरे अनेक बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में होता है, जैसे जैन परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में भी होता है। जैन आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट परिभाषिक अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी भी मूलग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें स्यात् शब्द का जैन परम्परा में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता। स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति उत्पन्न होती है, उसका मूल कारण उसे तिङन्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, अमृतचन्द, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय जैन अनेकान्तदर्शन 543
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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