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________________ गवेषकों को एक ऐसी दृष्टि का विकास करना पड़ा जो सभी की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उन विरोधी विचारों का समन्वय कर सके। यह विकसित दृष्टि अनेकान्त दृष्टि है जो वस्तु में प्रतीति के स्तर पर दिखाई देने वाले विरोध के अन्तस् में अविरोध को देखती है और सैद्धान्तिक द्वन्दों के निराकरण का एक व्यावहारिक एवं सार्थक समाधान प्रस्तुत करती है। इस प्रकार अनेकान्तवाद विरोधों के शमन का एक व्यावहारिक दर्शन है। वह उन्हें समन्वय के सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास करता है। ईशावास्य में पग-पग पर, अनेकान्त जीवन-दृष्टि के संकेत प्राप्त होते हैं। वह अपने प्रथम श्लोक में ही "त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्" कहकर त्याग एवं भोग-इन दो विरोधी तथ्यों का समन्वय करता है एवं एकान्त त्याग और एकान्त भोग दोनों को सम्यक् जीवनदृष्टि के लिए अस्वीकार करता है। जीवन न तो एकान्त त्याग पर चलता है और न एकान्त भोग पर, बल्कि जीवनयात्रा त्याग और भोगरूपी दोनों चक्रों के सहारे चलती है। इस प्रकार ईशावास्य सर्वप्रथम अनेकान्त की व्यावहारिक जीवन दृष्टि को प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार कर्म और अकर्म सम्बन्धी ऐकान्तिक विचारधाराओं में सम्न्वय करते हुए ईशावास्य (2) कहता है कि "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतां समाः" अर्थात् मनुष्य निष्कामभाव से कर्म करते हुए सौ वर्ष जीये। निहितार्थ यह है कि जो कर्म सामान्यतया सकाम या सप्रयोजन होते हैं वे बन्धनकारक होते हैं, किन्तु यदि कर्म निष्कामभाव से बिना किसी स्पृहा के हों तो उनसे मनुष्य लिप्त नहीं होता अर्थात् वे बन्धनकारक नहीं होते। निष्काम कर्म की यह जीवन-दृष्टि व्यावहारिक जीवन-दृष्टि है। भेद-अभेद का व्यावहारिक दृष्टि से समन्वय करते हुए उसी में आगे कहा गया है कि - यस्तु सर्वाणिभूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।। सर्वभूतेषुचात्मानं ततो न विजुगुप्सते।। अर्थात् जो सभी प्राणियों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है वह किसी से भी घृणा नहीं करता। यहां जीवात्माओं में भेद एवं अभेद दोनों को एक साथ स्वीकार किया गया है। यहाँ भी ऋषि की अनेकान्त दृष्टि ही परिलक्षित होती है जो समन्वय के आधार पर पारस्परिक घृणा को समाप्त करने की बात कहती है। एक अन्य स्थल पर विद्या (अध्यात्म) और अविद्या (विज्ञान)” में तथा सम्भूति (कार्यब्रह्म) एवं असम्भूति (कारणब्रह्म)18 अथवा वैयक्तिकता और सामाजिका में भी समन्वय करने का प्रयास किया गया है। ऋषि कहता है कि जो अविद्या की उपासना करता है वह अन्धकार में प्रवेश करता है और जो विद्या की उपासना करता 514 जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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