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________________ वस्तुतत्त्व की बहु-आयामिता और उसके अपेक्षा भेद से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों की युगपत उपस्थिति की स्वीकृति हमें वेदकाल से ही मिलने लगती है। मात्र इतना ही नहीं, ऋग्वेद का कथन - ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओं की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए, उनमें समन्वय करने का प्रयास ही तो है। इस प्रकार हमें अनैकांतिक दृष्टि के अस्तित्व के प्रमाण ऋग्वेद के काल से मिलने लगते हैं। यह बात न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा अनैकांतिक दार्शनिक दृष्टि की स्वीकृति की सूचक है अपितु इस सिद्धान्त की त्रैकालिक सत्यता और प्राचीनता की भी सूचक है। चाहे विद्वानों की दृष्टि में सप्तभंगी का विकास एक परवर्ती घटना हो, किन्तु अनेकांत तो उतना ही पुराना है, जितना ऋग्वेद का यह अंश। ऋग्वैदिक ऋषियों के समक्ष सत्ता या परमतत्त्व के बहुआयामी होने का पृष्ठ खुला हुआ था और यही कारण है कि वे किसी ऐकान्तिक दृष्टि में आबद्ध होना नहीं चाहते है। ऋग्वेद' इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण है - नासदासीन्नोसदासीत्तदानीं नासीद्रजो न व्योमपरोयत्। सत्य तो यह है कि उस परम सत्ता को जो समस्त अस्तित्व के मूल में सत्, असत् उभय या अनुभय किसी एक कोटी में आबद्ध करके नहीं कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में उसके समबन्ध में जो भी कथन किया जा सकेगा वह भाषा की सीमितता के कारण सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। यही कारण है कि वैदिक ऋषि उस परम सत्ता या वस्तुतत्त्व को सत्-असत् न कहना चाहता है, किन्तु प्रकारान्तर से वे उसे सत् भी कहते हैं - यथा - 'एकं सद् विप्रा वदन्ति' और उसे असत् भी कहते हैं। यथा-देवानां पूर्वे युगे असतः सद्जायत, इससे यही फलित होता है कि वेदिक ऋषि अनाग्रही अनेकांत दृष्टि के ही सम्पोषक रहे हैं। औपनिषदिक साहित्य और अनेकांतवाद न केवल वेदों में, अपितु उपनिषदों में भी इस अनैकांतिक दृष्टि के उल्लेख के अनेक संकेत उपलब्ध हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर परमसत्ता के बहुआयामी होने और उसमें परस्पर विरोधी कहे जाने वाले गुणधर्मों की उपस्थिति के संदर्भ मिलते हैं। जब हम उपनिषदों में अनेकांतिकदृष्टि के सन्दर्भो की खोज करते हैं तो उनमें हमें निम्न तीन प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं - (1) अलग-अलग सन्दर्भो में परस्पर विरोधी विचारधाराओं का प्रस्तुतीकरण। (2) ऐकान्तिक विचारधाराओं का निषेध। (3) परस्पर विरोधी विचारधाराओं के समन्वय का प्रयास। जैन अनेकान्तदर्शन 511
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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