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जैन दर्शन में अनेकान्त : सिद्धान्त और व्यवहार
अनेकांतवाद को मुख्यतः जैन दर्शन का पर्याय माना जाता है। यह कथन सत्य भी है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों ने उसका खण्डन मुख्यतः उसके इसी सिद्धान्त के आधार पर किया है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि अनेकातंवाद का विकास और तार्किक आधारों पर उसकी पुष्टि जैन दार्शनिकों ने की है। अतः अनेकांतवाद को जैन दर्शन का पर्याय मानना समुचित भी है। किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं है कि अन्य भारतीय दर्शनों में इसका पूर्णतः अभाव है। अनेकांत एक अनुभूत सत्य है और अनुभूत सत्य को स्वीकार करना ही होता है। विवाद या मत-वैभिन्य अनुभूति के आधार पर नहीं, उसकी अभिव्यक्ति के आधार पर होता है। अभिव्यक्ति के लिए भाषा का सहारा लेना होता है, किन्तु भाषायी अभिव्यक्ति, अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष होती है, अतः उसमें मतभेद होता है और उन मतभेदों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करने या उनमें परस्पर विरोधी कथ्यों के बीच समन्वय लाने के प्रयास में ही अनेकांतवाद का जन्म होता है। वस्तुतः अनेकांतवाद या अनैकांतिक दृष्टिकोण का विकास निम्न तीन आधारों पर होता है - (1) बहु-आयामी वस्तुतत्व के सम्बन्ध में ऐकांतिक विचारों या कथनों का
निषेध।
(2) भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के आधार पर बहुआयामी वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में
प्रस्तुत विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता की स्वीकृति। (3) परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विचार-धाराओं को समन्वित करने का प्रयास।
प्रस्तुतः आलेख में हमारा प्रयोजन इन अवधारणाओं के आधार पर जैन जैनेतर भारतीय चिन्तन में अनैकांतिक दृष्टिकोण कहां-कहां किस रूप में उल्लेखित है, इसका दिग्दर्शन कराना है। साथ ही उसके सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष को स्पष्ट करना है।
जैन अनेकान्तदर्शन
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