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आधार बन सकती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करूणा के लिए है । जैन साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जो पाँच व्रत माने गये हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है । जैन जन्त्र के दार्शनिक आधार
जैन तत्त्व दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के आवरण के कारण बन्धन में है । बन्धन से मुक्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का क्षयोपशम आवश्यक है, तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधना भी आवश्यक है किन्तु इस साधना के लिए बन्धन और बन्धन के कारणों का ज्ञान आवश्यक है, यह ज्ञान दार्शनिक अध्ययन से ही प्राप्त होता है । आत्मतत्त्व के ज्ञान के बिना साधना अधूरी रहती है । अतः जैन तन्त्र में भी तान्त्रिक साधना के पूर्व तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा का सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है । इस प्रकार जैन तत्त्व साधना में दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।
अब हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के कौन से तत्त्व किन-किन रूपों में उपस्थित हैं ? और उनका उद्भव एवं विकास कैसे हुआ ?
जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उद्भव एवं विकास
यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना - मुक्ति और आत्मविशुद्धि है, तो वह जैन ध ार्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है । किन्तु यदि तन्त्र का तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक ऐषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देवता - विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था । इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों में ऐसे अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी लौकिक ऐषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या यक्ष- यक्षी की उपासना की जाती थी। अंतगडदसा आदि आगमों में नैगमेषदेव के द्वारा सुलसा और देवकी के छः सन्तानों के हस्तांतरण की घटना, कृष्ण के द्वारा अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकार की उपासनाओं को जैन धर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा । प्रारम्भिक जैन धर्म विशेषरूप से महावीर की परम्परा में
जैन धर्मदर्शन
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