________________
1
ज्ञातव्य है कि पर्यायों में न केवल मात्रात्मक अर्थात् संख्या और अंशों (Degrees) की अपेक्षा से भेद होता है अपितु गुणों की अपेक्षा से भी भेद होते हैं। मात्रा की अपेक्षा से एक अंश काला, दो अंश वाला, अनन्त अंश काला आदि भेद होते हैं जबकि गुणात्मक दृष्टि से काला, लाल श्वेत आदि अथवा खट्टा-मीठा आदि अथवा मनुष्य, पशु, नारक, देवता आदि भेद होते हैं । गुण और पर्याय की वास्तविकता का प्रश्न
जो दार्शनिक सत्ता और गुण में अभिन्नता या तादात्म्य के प्रतिपादक हैं और जो परम सत्ता को तत्त्वतः अद्वैत मानते हैं, वे गुण और पर्याय को वास्तविक नहीं, अपितु प्रतिभासिक मानते हैं। उनका मानना है कि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों की परम सत्ता से पृथक् कोई सत्ता ही नहीं है ये मात्र प्रतीतियाँ हैं । अनुभव के स्तर पर जिनका उत्पाद या व्यय है अर्थात् जो परिवर्तनशील है, वह सत् नहीं है, मात्र प्रतिभास है। उनके अनुसार परम सत्ता (ब्रह्म) निर्गुण है । इसी प्रकार विज्ञानवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिकों के अनुसार परमाणु भी एक ऐसा अविभागी पदार्थ है, जो विभिन्न इन्द्रियों द्वारा रूपादि विभिन्न गुणों की प्रतीति कराता है, किन्तु वस्तुतः उसमें इन गुणों की कोई सत्ता नहीं होती है । इन दार्शनिकों की मान्यता यह है कि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि की अनुभूति हमारे मन पर निर्भर करती है । अतः वे वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मनोविकल्प ही हैं । उनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है । यदि हमारी इन्द्रियों की संरचना भिन्न प्रकार की होती है तो उनसे हमें जो संवेदना होती वह भी भिन्न प्रकार की होती । यदि संसार के सभी प्राणियों की आँखों की संरचना में रंग अंधता होती तो वे संसार की सभी वस्तुओं को केवल श्वेत-श्याम रूप में ही देखते और उन्हें अन्य रंगों का कोई बोध नहीं होता । लालादि रंगों के अस्तित्त्व का विचार ही नहीं होता । जिस प्रकार इन्द्रधनुष के रंग मात्र प्रतीति हैं वास्तविक नहीं अथवा जिस प्रकार हमारे स्वप्न की वस्तुएँ मात्र मनोकल्पनाएँ हैं, उसी प्रकार गुण और पर्याय भी मात्र प्रतिभास है । चित्त - विकल्प वास्तविक नहीं हैं ।
किन्तु जैन दार्शनिक अन्य वस्तुवादी दार्शनिकों (Realist) के समान द्रव्य के साथ-साथ गुण और पर्याय को भी यथार्थ / वास्तविक मानते हैं । उनके अनुसार प्रतीति और प्रत्यय यथार्थ के ही होते हैं । जो अयथार्थ हो उसका कोई प्रत्यय ( Idea ) या प्रतीति ही नहीं हो सकती है । आकाश - कुसुम या परी आदि की अयथार्थ कल्पनाएँ भी दो यथार्थ अनुभूतियों का चैत्तसिक स्तर पर किया गया मिश्रण मात्र है । स्वप्न भी यथार्थ अनुभूतियों और उनके चैत्तसिक स्तर पर किये गये मिश्रणों से ही निर्मित होते हैं, जन्मान्ध को कभी रंगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं । अतः
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
36