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बन्ध के कारण है (causes of bondage) जबकि अंतिम दो ध्यान मोक्ष के साधन हैं (the means of emancipation) और इसीलिए उनको योग-साधना के अंग माना गया हैं।
__ जिनभद्रगणि और पूज्यपाद देवनन्दी के पश्चात् ऐसे जैन आचार्य हुए हैं, जिनका जैनेयोग पद्धति की पुर्नरचना (Reconstrnction of jain yoga) में और अन्य योग पद्धतियों के साथ जैनयोग पद्धति के समन्वय के क्षेत्र में अवदान रहा हैं। उन्होंने जैनयोग संबंधी 4 महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है- योगविंशिका, योगशतक, योगबिन्दु और योगदृष्टिसमुच्चय। आचार्य हरिभद्र ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने जैन परम्परा में योग शब्द की परिभाषा को पहली बार बदल दिया। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, आगमयुग (canonical period) में 'योग' शब्द बन्धन का कारण माना गया है। जबकि आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का साधन के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार समस्त आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाएँ, जो अंत में मोक्ष तक ले जाती है- योग है।
हरिभद्र ने अपने सम्पूर्ण योग साहित्य में सामान्यतः यही मत व्यक्त किया है कि सभी धार्मिक और आध्यात्मिक क्रियाएँ जो कि मोक्ष तक पहुँचाती है, योग के रूप में मान्य हैं। यह दृष्टव्य है कि उन्होंने अपने योग साहित्य में योग को भिन्न प्रकार से समझाया है। प्रथम तो यह कि उन्होंने अपनी योगविंशिका (yogavinsika)में योग के निम्न 5 भेद बतायें हैं। 1. स्थानयोग अर्थात् आसन का अभ्यास (practice of proper postures) 2. उर्णयोग अर्थात् ध्वनि का सही उच्चारण (correct uttarence of sound) 3. अर्थयोग - धार्मिक योग ग्रन्थों के अर्थ को सही रूप में समझाना (proper
understanding of the meaning of canonical works) 4. आलम्बन - किसी विशिष्ट लक्ष्य जैसे जिनप्रतिमा आदि पर मन की एकाग्रता
(concentration of mind on a object as jina image etc.) इस अवस्था में जिन के या आत्मा के अमूर्त गुणों (abstract qualities of jain or self)
के चिन्तन में चित्तवृत्ति की एकाग्रता (concentration of thought) होती है। 5. अनालम्बन - इस पाँचवी स्थिति को आत्मा या मन की विचारहीन अवस्था
(thoughtless state of the self) या निर्विकल्पदशा भी कहा जा सकता हैं।
___ योग के इन पाँच भेदों में से प्रथम दो योग साधना के बाह्य पक्ष से जुड़े हुए हैं और अंतिम तीन योग साधना के आंतरिक पक्ष से, दूसरे शब्दों में प्रथम दो योग कर्म-योग हैं और अंतिम तीन योग ज्ञान-योग हैं। हरिभद्र ने अपने योगबिन्दु नामक ग्रन्थ में योग के अन्य 5 भेदों का वर्णन किया है - जैन धर्मदर्शन
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