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________________ 4. वाद्ययंत्रों के वादन में, मोटर आदि के चलाने में हाथ का संयम रखना जरूरी होता है। थोड़ा-सा हाथ का संयम खत्म हुआ कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी। ताल व वाद्य पर कंट्रोल न रहा तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा। संयम के बिना जीवन नहीं चल सकता, संयम रूपी ब्रेक की हर काम में आवश्यकता होती है। जिस प्रकार मोटर, रेल, साइकिल आदि में ब्रेक न हो तो महान दुर्घटना की सम्भावना रहती है उसी प्रकार जीवन में भी संयम न रहने पर अनेक दुर्घटनाएँ घटित हो सकती हैं। सामाजिक जीवन में भी संयम के अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। सामाजिक जीवन में प्रविष्टि संयम के बिना संभव ही नहीं है। व्यक्ति जब तक अपने हितों को मर्यादित नहीं कर सकता और अपनी आकांक्षाओं को सामाजिक हित के लिये बलिदान नहीं कर सकता वह सामाजिक जीवन के अयोग्य है। समाज में शांति और समृद्धि तभी संभव है जब उसके सदस्य अपने हितों का नियंत्रण करना सीखें। सामाजिक जीवन में हमें अपने हितों के लिए एक सीमा-रेखा निश्चित करनी होती है। हम अपने हितसाधन की सीमा वहीं तक बढ़ा सकते हैं जहाँ तक दूसरे के हित की सीमा प्रारम्भ होती है। समाज में व्यक्ति अपने स्वार्थ की सिद्धि तभी तक कर सकता है जब तक उससे दूसरे का अहित न हो। इस प्रकार सामाजिक जीवून में हमें संयम का पहला पाठ पढ़ना ही होता है। मात्र यही नहीं वरन् हमें साथियों के लिए अपनी आवश्यकताओं का बलिदान करना पड़ता है। सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्त्व है : 1. अनुशासन, 2. सहयोग की भावना और 3. अपने हितों को बलिदान करने की क्षमता। क्या इन सबका आधार संयम नहीं है? वस्तुस्थिति यह है कि संयम के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही संभव नहीं। ___ संयम और मानवजीवन ऐसे घुले-मिले तथ्य हैं कि उनसे परे एक सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना संभव नहीं हैं। संयम का दूसरा रूप ही मर्यादित जीवनव्यवस्था है। मनुष्य के लिए अमर्यादित जीवनव्यवस्था संभव नहीं है। हम सभी ओर से मर्यादाओं से आबद्ध हैं, प्राकृतिक मर्यादाएँ, व्यक्तिगत मर्यादाएँ, सामाजिक मर्यादाएँ, राष्ट्रीय मर्यादाएँ और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादाएँ, इन सभी से मनुष्य बंधा हुआ है और यदि वह इन सबको स्वीकार न करे तो वह उस दशा में पशु से भी हीन होगा। महान् राजनैतिक विचारक रूसो ने ठीक ही कहा है- "Man was born free and evey where he is in chains"5 'मनुष्य का जन्म स्वतंत्र रूप में हुआ था, लेकिन वह अपने को श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ पाता है।' 448 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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