________________
संयम : जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण
संभवतः किन्ही विचारकों की यह मान्यता हो सकती है कि व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा के संचालन में किन्हीं मर्यादाओं एवं आचार के नियमों से नहीं बांधना चाहिये। लेकिन यदि हम विचारपूर्वक देखें तो यह तर्क युक्तिसंगत नहीं। इस तथ्य के समर्थन में प्रबलतम तर्क यह दिया जा सकता है कि 'मर्यादाओं के द्वारा हम व्यक्ति के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट कर देते हैं और मर्यादाएं या नियम कृत्रिम एवं आरोपित होते हैं, वे तो स्वयं एक प्रकार के बंधन हैं। इस प्रकार मनुष्य के लिए मर्यादाएं (सीमा रेखायें) व्यर्थ हैं।'
लेकिन यह मान्यता यथार्थ नहीं। यदि हम प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो हमें स्वयं ज्ञात होगा कि प्रकृति स्वयं नियमों से आबद्ध है। एक पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा का कथन है कि 'संसार में जो कुछ हो रहा है, नियमबद्ध हो रहा है इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता.... जो कुछ होता है प्राकृतिक नियम के अधीन होता है।
प्रकृति स्वयं उन तथ्यों को व्यक्त कर रही है जो इस धारणा को पुष्ट करते करते हैं कि विकारमुक्त स्वभावदशा की प्राप्ति एवं आत्मविकास के लिए मर्यादाएं आवश्यक हैं। चेतन और अचेतन दोनों प्रकार की सृष्टियों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। सम्पूर्ण जगत् नियमों से शासित है। जिस समय जगत् में नियमों का अस्तित्व समाप्त होगा उसी समय जगत् का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। अतः नियम या मर्यादाएं कृत्रिम या अस्वाभाविक नहीं, स्वाभाविक हैं।
नदी का अस्तित्व इसी में है कि वह अपने तटों की मर्यादा स्वीकार करे। यदि अपनी सीमा-रेखा (तट) को स्वीकार नहीं करती है तो क्या वह अपना अस्तितव बनाये रख सकती है? क्या अपने लक्ष्य जलनिधि (समुद्र) को प्राप्त कर सकती है? किंवा जनकल्याण में उपयोगी हो सकती है? वास्तव में तटों की मर्यादा के बिना नदी, नदी ही नहीं रह सकती। प्रकृति यदि अपने नियमों में आबद्ध नहीं रहे, वह मर्यादा भंग कर दे तो वर्तमान विश्व क्या अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है? प्रकृति का अस्तित्व स्वयं उसके नियमों पर है। डॉ. राधाकृष्णन अपनी पुस्तक
444
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान