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________________ देखते हैं। निर्वाण से भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है । यद्यपि इस प्रकार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय का निर्वाण का अभावात्मक दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है, लेकिन सौत्रान्तिक में भी एक ऐसा उपसंप्रदाय था जिसके अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था। उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है। यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्षदशा में आत्मा में चेतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित होती रहती है। 3. विज्ञानवाद-योगाचार - महायान के प्रमुख ग्रंथ लंकावतार के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्तिविज्ञानों की अप्रवृत्तावस्था है, चित्तप्रवृत्तियों का निरोध है | 29 स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय है । असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्वाण ) अचित है, क्योंकि वह विषयों का ग्राहक नहीं है । वह अनुपलम्भ है क्योंकि उसका कोई बाह्य आलंबन नहीं है और इस प्रकार आलंबन रहित होने से वह लोकोत्तर ज्ञान है । दौष्ठुल्य अर्थात आवरण (क्लेशावरण और ज्ञेयावरण) के नष्ट हो जाने से निवृत्तचित्त (आलयविज्ञान) परावृत्त नहीं होता, प्रवृत्त नहीं होता।" वह अनावरण अनास्वधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से संतुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय और भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुखरूप है, विमुक्तकाय है और धर्मास्य है | इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है । वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है । लंकावतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों के परे है लेकिन फिर भी विज्ञानवाद निर्वाण को उस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से उत्पन्न ज्ञान होता है । 1 तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का जैन विचारणा में निम्न अर्थों में साम्य है । 1. निर्वाण चेतना का अभाव नहीं है वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है । 2. निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है । 3. निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती है जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 424
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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