SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने समान समझकर, किसी की हिंसा या घात नहीं करना चाहिए । धम्मपद में भी बुद्ध ने यही कहा है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय हैं, अतः सबको अपने समान समझकर न मारे और न मारने की प्रेरणा करें। जो सुख चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से दुःख प्रदान करता है वह मरकर भी सुख नहीं पाता, लेकिन जो सुख चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से दुःख नहीं देता, वह मर कर भी सुख को प्राप्त होता है। गीता एवं महाभारत का दृष्टिकोण मनुस्मृति, महाभारत और गीता में भी हमें इस दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है, वही परमयोगी है। महाभारत में अनेक स्थानों पर इसी दृष्टिकोण का समर्थन हमें मिलता है। उसमें कहा गया है कि जैसा कि अपने लिए चाहता है वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करें । त्याग-दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के समान मानकर व्यवहार करना चाहिए । जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने समान व्यवहार करता है वही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता है" । जो व्यवहार स्वयं को प्रिय लगता है वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति किया जाए; हे युधिष्ठर ! धर्म और अधर्म की पहचान का यही लक्षण है" । - पाश्चात्य दृष्टिकोण - पाश्चात्य दर्शन में भी सामाजिक जीवन में दूसरों के प्रति व्यवहार करने का यही दृष्टिकोण स्वीकृत है कि जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही दूसरे के लिए करो । कान्ट ने भी कहा है कि केवल उसी नियम के अनुसार काम करो जिसे तुम एक सार्वभौम नियम बन जाने की इच्छा कर सकते हो। मानवता चाहे वह तुम्हारे अन्दर हो या किसी अन्य के, वह सदैव से साध्य बनी रहे, साधन कभी न ही । कान्ट के इस कथन का आशय भी यही निकलता है कि नैतिक जीवन के संदर्भ में सभी को समान मानकर व्यवहार करना चाहिए । शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर - जैन विचारणा में शुभ एवं अशुभ अथवा मंगल, अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गई है। उत्तराध्ययन सूत्र में नव तत्व माने गये हैं जिसमें पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्व के रूप मे गिना गया है । जबकि तत्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातों को ही तत्व कहा है वहां पर पुण्य और पाप का स्वतंत्र तत्व के रूप में स्थान नहीं है। लेकिन यह विवाद अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतन्त्र तत्व नहीं मानती है वह भी उनको आश्रव एवं बंध तत्व के अन्तर्गत तो मान लेती है । यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आश्रव नहीं है वरन् उनका बंध भी जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 406
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy