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________________ अभिधम्म संगहो में निम्न 14 अकुशल चैतसिक बताए गए है - 1. मोह-चित्त का अन्धापन मूढ़ता, 2. अहिरिक निर्लज्जता, 3. अनौत्तपयं- अभीरुतापाप कर्म में भय न मानना, 4. उद्धच्चं-उद्धतपन, चञ्चलता, 5. लोभोतृष्णा, 6. दिट्ठिमिथ्या दृष्टि 7. मानो-अहंकार, 8.दोसो-द्वेष, 9. इस्सा-ईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति को न सह सकना), 10 मच्छरियं-मात्सर्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्चकौकृत्य (कृत-अकृत के वारे में पश्चाताप), 12. थीनं, 13. मिद्धं, 14. विचिकिच्छा-विचिकित्सा (संशयालुपन)। गीता का दृष्टिकोण - गीता में भी जैन और बौद्ध दर्शन में स्वीकृत इन पापाचरणों या विकर्मों का उल्लेख आसुरी सम्पदा के रूप में किया गया है। गीता रहस्य में तिलक ने मनु स्मृति के आधार पर निम्न दस प्रकार के पापाचरण का वर्णन किया है। (अ) कायिक : 1. हिंसा, 2.चोरी, 3. व्याभिचार (ब) वाचिक : 4. मिथ्या (असत्य), 5. ताना मारना, 6. कटुवचन, 7. असंगत बोलना (स) मानसिक : 8. परद्रव्य अभिलाषा, 9. अहित चिन्तन, 10. व्यर्थ आग्रह पाप के कारण - जैन विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं1. राग या स्वार्थ, 2. द्वेष या घृणा और 3. मोह या अज्ञान । प्राणी राग, द्वेष और मोह से ही पाप कर्म करता है। बुद्ध के अनुसार भी पाप कर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं- 1. लोभ (राग), 2. द्वेष और 3. मोह। गीता के अनुसार काम (राग) क्रोध ही पाप के कारण हैं। पुण्य (कुशल कम) - पुण्य वह कर्म है जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश के मध्य सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्वार्थ सूत्रकार कहते हैं - शुभाश्रव पुण्य है। लेकिन पुण्य मात्र आश्रव नहीं है, वरन् वह बन्ध और विपाक भी है, दूसरे वह मात्र बन्धन या हेय ही नहीं है वरन् उपादेय भी है। अतः अनेक आचार्यों ने उसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। आचार्य हेमचन्द्र-पुण्य अशुभ कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। पुण्य के निर्वाण की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या आचार्य अभयदेव की स्थानागंसूत्र की टीका में मिलती हैं। आचार्य अभयदेव कहते हैं - पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है । आचार्य की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधनों में सहायक तत्व है। मुनि सुशीलकुमार जैनधर्म नामक पुस्तक में लिखते हैं पुण्य मोक्षार्थियों की नौका के लिये 400 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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