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कारण बताये गये हैं।- (1) जो किसी त्रस प्राणी को पानी में डुबाकर मारता है। (2) जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र अशुभ अध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है। (3) जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँध कर मारता है। (4) जो किसी त्रस प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है। (5) जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक का छेदन करके मारता है। (6) जो किसी त्रस प्राणी को छल से मारकर हँसता है। (7) जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना अनाचार छिपाता है। (8) जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर कलंक लगाता है। (9) जो कलह बढ़ाने के लिए जानता हुआ मिश्र भाषा बोलता है। (10) जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा उन्हें मार्मिक वचनों से लज्जित कर देता है। (11) जो स्त्री में आसक्त व्यक्ति अपने-अपको कुंवारा कहता है। (12)जो अत्यन्त कामुक व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। (13) जो चापलूसी करके अपने स्वामी को ठगता है। (14) जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना है, ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। (15) जो प्रमुख पुरुष की हत्या करता है। (16) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। (17) जो अपने उपकारी की हत्या करता है। (18) जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या करता है। (19) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है। (20) जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है। (21) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु की निन्दा करता है। (22) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरू का अविनय करता है। (23) जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आप को बहुश्रुत कहता है। (24) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको तपस्वी कहता है। (25) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता है। (26) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररूपण करते हैं। (27) जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते हैं। (28) जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा करता है। (29) जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। (30) जो असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है। (अ) दर्शन-मोह - जैन-दर्शन में 'दर्शन' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- (1) प्रत्यक्षीकरण, (2) दृष्टिकोण और (3) श्रद्धा। प्रथम अर्थ का सम्बन्ध दर्शनावरणीय कर्म से है जबकि दूसरे और तीसरे अर्थ का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। दर्शन-मोह के कारण प्राणी में सम्यक् दृष्टिकोण का अभाव होता है और वह मिथ्या धारणाओं एवं विचारों का शिकार रहता है, उसकी विवेकबुद्धि असंतुलित होती है। दर्शनमोह तीन प्रकार का है-- (1) मिथ्यात्व मोह- जिसके कारण प्राणी असत्य को सत्य तथा सत्य को असत्य समझता है। शुभ को अशुभ और अशुभ को शुभ मानना मिथ्यात्व मोह है। (2) सम्यक-मिथ्यात्व मोह - सत्य एवं असत्य तथा शुभ एवं अशुभ के सम्बन्ध में निश्चयात्मक और (3) सम्यकत्व मोह - क्षायिक सम्यकत्व की उपलब्धि में बाधक सम्यकत्व मोह है अर्थात् दृष्टिकोण की आंशिक विशुद्धता।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान