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________________ उपर्युक्त छः प्रकार का अनैतिक आचरण व्यक्ति की ज्ञानशक्ति के कुंठित होने का कारण है । ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक - विपाक की दृष्टि से ज्ञानावरणीय कर्म के कारण पाँच रूपों में आत्मा की ज्ञान-शक्ति का आवरण होता है - (1) मतिज्ञानावरण - ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान- क्षमता (2) श्रुतज्ञानवारण - बौद्धिक अथवा आगमज्ञान की अनुपलब्धि, (3) अवधि ज्ञानवारण - अतीन्द्रिय ज्ञान - क्षमता का अभाव (4) मनःपर्याय ज्ञानावरण - दूसरे की मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करने लेने की शक्ति का अभाव (5) केवलज्ञानावरण- पूर्णज्ञान प्राप्त करने की क्षमता का अभाव । कहीं-कहीं विपाक की दृष्टि से इसके 10 भेद भी बताये गये हैं- 1. सुनने की शक्ति का अभाव, 2. सुनने से प्राप्त होने वाले ज्ञान की अनुपलब्धि, 3. दृष्टि शक्ति का अभाव, 4. दृश्यज्ञान की अनुपलब्धि, 5. गंधग्रहण करने की शक्ति का अभाव, 6. गन्ध सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, 7. स्वाद ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, 8. स्वाद सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, 9. स्पर्श क्षमता का अभाव और 10. स्पर्श सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि । 2. दर्शनावरणी कर्म जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की दर्शन-शक्ति में बाधक होती है, वे दर्शनावरणीय कर्म कहलाती हैं। ज्ञान से पहले होने वाला वस्तु तत्त्व का निर्विशेष (निर्विकल्प ) बोध, जिसमें सत्ता के अतिरिक्त किसी विशेष गुण धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन - गुण को आवृत करता है । दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण - ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है - (1) सम्यक् दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, (2) मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, ( 3 ) शुद्ध दृष्टिकोण की उपलबिध में बाधक बनना, (सम्यग्दृष्टि ) का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, (5) सम्यग्दृष्टि पर द्वेष करना (6) सम्यग्दृष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना । दर्शनावरणीय कर्म का विपाक - उपर्युक्त अशुभ आचरण के कारण आत्मा दर्शन गुण नौ प्रकार से कुंठित हो जाता है - ( 1 ) चक्षुदर्शनावरण - नेत्रशक्ति का अवरूद्ध हो जाना । ( 2 ) अचक्षुदर्शनावरण - नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की सामान्य अनुभव शक्ति का अवरूद्ध हो जाना । जैन धर्मदर्शन 385
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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