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पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, फिर भी पुण्य कर्म एवं पाप कर्म दोनों ही संसार (बन्धन) का कारण है। जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है उसकी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं। फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्ततोगत्त्वा दोनों ही बन्धन हैं। यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैं -
__पूण्य पाप दोऊ करम, बन्धरूप दुई मानि।।
शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमूं चरन हित जानि।
जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्त्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी तरह सहायक है जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है, फिर भी उसे अलग करना होता है वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म-दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है, उसे भी छोड़ना होता है। जिस प्रकार साबुन मल को दूर करता है और मैल छूटने पर स्वयं अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापरूप मल को अलग करने में सहायक होता है अतः व्यक्ति जब अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है, तब उसका शुभ कर्म भी शुद्ध बन जाता है। द्वेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निस्सृत होते हैं, वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं। जैनाचारदर्शन में राग-द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण का कारण माना गया है और आसक्तिपूर्वक किया गया शुभ कर्म-योग जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्ष्य अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर, और शुभकर्म से शुद्धकर्म (वीतराग दशा) की प्राप्ति है। आत्म का शुद्धोपयोग ही जैन धर्म का अन्तिम साध्य है। शुद्ध कर्म (अकम)
शुद्ध कर्म वह जीवन-व्यवहार है, जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित मात्र कर्तव्यबुद्धि से सम्पादित होती हैं तथा जो आत्मा को बन्धन में नहीं डालती। अबन्धक कर्म ही शुद्धकर्म है। जैन आचरदर्शन इस प्रश्न पर गहराई से विचार करता है कि आचरण (क्रिया) एवं बन्धन में क्या सम्बन्ध है? क्या 'कर्मणा बध्यते जन्तः' की उक्ति सर्वाशतः सत्य है? एक तो कर्म या क्रिया के सभी रूप बन्धन की दृष्टि से समान नहीं हैं फिर यह भी सम्भव है कि आचरण एवं क्रिया के होते हुए भी कोई बन्धन नहीं हो, लेकिन यह निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है और जैन धर्मदर्शन
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