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कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्त्व है । जो अस्तित्त्वान् है, वही द्रव्य है । किन्तु यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होता है कि द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ तो 'दूयते इति द्रव्य': के आधार पर उत्पाद व्यय रूप अस्तित्त्व को ही सिद्ध करता है । इसी आधार पर यह कहा गया है कि जो त्रिकाल में परिणमन करते हुए भी अपने स्व स्वभाव का पूर्णतः परित्याग न करे उसे ही सत् या द्रव्य कहा जा सकता है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वामि ने एक ओर द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक भी बताया। यदि सत् और द्रव्य एक
है तो फिर द्रव्य को भी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक कहा जा सकता है। साथ ही उमास्वाती ने तत्त्वार्थसूत्र (5 / 38 ) में द्रव्य को परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय
युक्त भी कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय संग्रह और प्रवचनसार में इन्हीं दोनों लक्षणों को मिलाकर द्रव्य को परिभाषित किया है। पंचास्तिकाय संग्रह (10) में वे कहते हैं कि द्रव्य सत् लक्षण वाला है । इसी परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (15-16) में वे कहते हैं कि जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा गुण- पर्याय सहित है, उसे द्रव्य कहा जाता है । इस प्रकार कुन्दकुन्द ने द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में उमास्वामि के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामि की विशेषता यह है कि उन्होंने गुणपर्यायवत् द्रव्य कहकरें जैन दर्शन के भेद - अभेदवाद को पुष्ट किया है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिकसूत्र के 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता' (1/2/8) नामक सूत्र के निकट ही सिद्ध होती है । उमास्वामि ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को रख दिया है । जैन दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है । इसी तथ्य को मीमांसा दर्शन में इस रूप में स्वीकार किया गया है
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वर्द्धमानकभंगे च, रुचकः क्रियते यदा । तदापूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाय्युत्तरार्थिनः । । 21 । । हे मार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पादस्थितिभंगानामभावेसन्मति त्रयम् ।। 22 ।। न नाशेन विनाशोको, नोत्पादेन विनासुखम् । स्थित्याविना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता । 23 ।। मीमांसा श्लोकवार्तिक पृ-61 अर्थात् वर्द्धमानक (बाजूबंद) को तोड़कर रुचकहार बनाने में वर्द्धमानक को चाहने वाले को शोक, रुचक चाहने वाले को हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को न हर्ष और न शोक होता है । उसका तो माध्यस्थ भाव रहता है । इससे सिद्ध होता है कि वस्तु या सत्ता उत्पाद भंग और स्थिति रूप होती है क्योंकि नाश के अभाव में
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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