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को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं । जैन दृष्टि एंकागी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है । वह व्यक्ति - सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज-सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है । उसमें द्रव्य ( बाह्य) और भाव (आन्तरिक) दोनों का मूल्य हैं। योग (बाह्यक्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है । वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना क्या संयमी पुरूषों का लक्षण है? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है । मानसिक हेतु पर ही जोर देने वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग ( 1/1/24-29) में कहा गया है, कर्म - बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फंसते रहते हैं क्योंकि पाप लगने के तीन स्थान हैं - स्वयं करने से, दूसरे से कराने से, दूसरों के कार्य का अनुमोदन करने से। परन्तु यदि हृदय पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, मन से पाप को पाप समझते हुए जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम ( वासना - निग्रह) में शिथिल है। परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मानकर पाप में पड़े हैं।
पाश्चात्य आचारदर्शन में भी सुखवादी दार्शनिक कर्म की फलश्रुति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जब कि मार्टिन्यू कर्मप्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है । जैन दर्शन के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणाओं में अपूर्ण सत्य है-- एक का आधार लोकदृष्टि है तथा दूसरी का आधार परमार्थ-दृष्टि या शुद्ध - दृष्टि है । एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा पारमार्थिक सत्य । नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है, अतः उसमें दोनों काही मूल्य है ।
कर्त्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के निर्णय का आधार मानें या कर्म के समाज पर होने वाले परिणाम को, दोनों स्थितियों में किस प्रकार का कर्म पुण्य कर्म कहा जायेगा, इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । सामान्यतया भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है। जहां कर्म-अकर्म का विचार व्यक्ति - सापेक्ष है, तो वैयक्तिक कर्म-प्रेरक वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता ( वीतरागता ) ही हमारे निर्णय का आधार बनती है लेकिन जब हम पुण्य-पाप का विचार करते हैं तो समाज कल्याण या लोकहित ही हमारे निर्णय का आधार होता है । वस्तुतः भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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