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कहा जा सकता है, वैसे इनमें भी किसी की पूर्वापरता का निश्चय नहीं हो सकता है। प्रत्येक द्रव्यकर्म की अपेक्षा से भावकर्म पूर्व होगा तथा प्रत्येक भावकर्म की अपेक्षा से द्रव्यकर्म पूर्व होगा।
द्रव्यकर्म एवं भावकर्म की इस अवधारणा के आधार पर जैन-कर्मसिद्धान्त अधिक युक्तिसंगत बन गया है। जैन कर्मसिद्धान्त कर्म के भावात्मक पक्ष पर समुचित बल देते हुए भी जड़ और चेतन के मध्य एक वास्तविक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। कर्म जड़-जगत् एवं चेतना के मध्य एक योजक कड़ी है। जहाँ एक ओर सांख्य-योग दर्शन के अनुसार कर्म-पूर्णतः जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है, अतः उनके अनुसार वह प्रकृति ही है, जो बन्धन में आती है और मुक्त होती है, वहीं दूसरी ओर बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म संस्कार रूप है अतः वे चैतसिक हैं। इसलिए उन्हें मानना पड़ा कि चेतना ही बन्धन एवं मुक्ति का कारण है, किन्तु जैन विचारक इन एकांगी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट नहीं हो पाये। उनके अनुसार संसार का अर्थ है-जड़ और चेतन का पारस्पिरिक बन्धन या उनकी पारस्परिक प्रभावशीलता तथा मुक्ति का अर्थ है - जड़ एवं चेतन की एक दूसरे को प्रभावित करने की सामर्थ्य का समाप्त हो जाना। भौतिक एवं अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता
जिन दार्शनिकों ने चरम-सत्य के सम्बन्ध में अद्वैत की धारणा के स्थान पर द्वैत की धारणा स्वीकार की, उनके लिए यह प्रश्न बना रहा कि वे दोनों तत्त्व एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। अनेक विचारकों ने द्वैत को स्वीकारते हुए भी उनके पारस्परिक सम्बन्ध को अस्वीकार किया । किन्तु जगत् की व्याख्या इनके पारस्परिक सम्बन्ध के अभाव में सम्भव नहीं है। पश्चिम में यह समस्या देकार्त के सामने प्रस्तुत हुई थी। देकार्त ने इसका हल पारस्परिक प्रतिक्रियावाद के आधार पर किया भी, किन्तु स्पिनोजा उससे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने प्रश्न उठाया कि दो स्वतन्त्र सत्ताओं में परस्पर प्रतिक्रिया सम्भव कैसे है? अतः स्पिनोजा ने प्रतिक्रियावाद के स्थान पर समानान्तरवाद की स्थापना की। लाइबनित्ज़ ने पूर्वस्थापित सामंजस्य की अवधारणा प्रस्तुत की । भारतीय चिन्तन में भी प्राचीन काल से इस सम्बन्ध में प्रयत्न हुए हैं। उसमें यह प्रश्न उठाया गया कि लिंगशरीर या कर्मशरीर आत्मा को कैसे प्रभावित कर सकता है? सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करके भी इनके पारस्परिक सम्बन्ध को नहीं समझा पाया, क्योंकि उसने पुरुष को कूटस्थ नित्य मान लिया था, किन्तु जैन दर्शन ने अपने वस्तुवादी और परिणामवादी विचारों के आधार पर इनकी सफल व्याख्या की है। वह बताता है कि जिस प्रकार जड़ मादक पदार्थ चेतना को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार जड़ 366
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान