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________________ अपने स्वकृत कर्मों को ही विपाक अनुभव करता है। बन्धन के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग (1/8/2) स्पष्ट रूप से कहता है कि कुछ व्यक्ति कर्म को और कुछ अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के सन्दर्भ में यह विचार लोगों के मन में उत्पन्न हो गया था कि यदि कर्म ही बन्धन है तो फिर अकर्म अर्थात् निष्क्रियता ही बन्धन से बचने का उपाय होगा, किन्तु सूत्रकृतांग के अनुसार अकर्म का अर्थ निष्क्रिष्यता नहीं है। इसमें प्रतिपादित है कि प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है (1/8/3) वस्तुतः किसी क्रिया की बन्धकता उसके क्रिया-रूप होने पर नहीं, अपितु उसके पीछे रही प्रमत्तता या अप्रमत्तता पर निर्भर है। यहाँ प्रमाद का अर्थ है आत्मचेतना (Selfawareness) का अभाव। जिस आत्मा का विवेक जागृत नहीं है और जो कषाययुक्त है, वही परिसुप्त या प्रमत्त है और जिसका विवेक जागृत है और जो वासना-मुक्त है, वही अप्रमत्त है। सूत्रकृतांग (2/2/1) में ही हमें क्रियाओं के दो रूपों की चर्चा भी मिलती है - 1. साम्परायिक और 2. ईर्यापथिक'। राग, द्वेष, क्रोध आदि कषायों से युक्त क्रियायें ईर्यापधिक कही जाती हैं। साम्परायिक क्रियायें बन्धक होती हैं, जबकि ईर्यापथिक बन्धनकारक नहीं होतीं। इससे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सूत्रकृतांग में कौन सा कर्म बन्धन का कारण होगा और कौन सा कर्म बन्धन का कारण नहीं होगा, इसकी एक कसौटी प्रस्तुत कर दी गई है। आचारांग में प्रतिपादित ममत्त्व की अपेक्षा इसमें प्रमत्तता और कषाय को बन्धन का प्रमुख कारण माना गया है। यदि हम बन्धन के कारणों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें, तो यह पाते हैं कि प्रारम्भ में ममत्व (मेरेपन) को बन्धन का कारण माना गया, फिर आत्मविस्मृति या प्रमाद को। जब प्रमाद की व्याख्या का प्रश्न आया, तो स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष की उपस्थिति ही प्रमाद है। अतः राग-द्वेष को बन्धन का कारण बताया गया है। इनमें मोह, मिथ्यात्व और कषाय का संयुक्त रूप है। प्रमाद के साथ इनमें अविरति एवं योग के जुड़ने पर जैन परम्परा में बन्धन के 5 कारण माने जाने लगे । समयसार आदि में प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानकर बन्धन के चार कारणों का उल्लेख मिलता है । इनमें योग बन्धनकारक होते हुए भी वस्तुतः जब तक कषाय के साथ युक्त नहीं होता है, बन्धन का कारण नहीं बनता है। अतः प्राचीन ग्रन्थों में बन्धन के कारणों की चर्चा में मुख्य रूप से राग-द्वेष (कषाय) एवं मोह (मिथ्यादृष्टि) की ही चर्चा हुई है। जैन कर्मसिद्धान्त के इतिहास की दृष्टि से कर्मप्रकृतियों का विवेचन भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कर्म की अष्ट मूलप्रकृतियों का सर्व प्रथम निर्देश हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध होता है। इसमें 8 प्रकार की जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 362
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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