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8. पुरुषवाद - वैयक्तिक विभिन्नता और सांसारिक घटना क्रम के मूल में पुरूष का पुरुषार्थ ही प्रमुख है ।
वस्तुतः जगत्-वैविध्य और वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक व्याख्या के इन्हीं प्रयत्नों में कर्मासिद्धान्त का विकास हुआ है जिसमें पुरुषवाद की प्रमुख भूमिका रही है। कर्मसिद्धान्त उपर्युक्त सिद्धान्तों का पुरुषवाद के साथ समन्वय का है 1
प्रयत्न
श्वेताश्वतरोषपनिषद् के प्रारम्भ में ही प्रशन उठाया गया है कि हम किसके द्वारा प्रेरित होकर संसार - यात्रा का अनुवर्तन कर रहे हैं। आगे ऋषि यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि क्या काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत-योनि अथवा पुरुष या इन सबका संयोग ही इसका कारण है । वस्तुतः इन सभी विचारधाराओं में पुरुषवाद को छोड़कर शेष सभी विश्व- वैचित्र्य और वैयक्तिक - वैविध्य की व्याख्या के लिए किसी न किसी बाह्य-तथ्य पर ही बल दे रही थीं। हम इनमें से किसी भी सिद्धान्त को मानें, वैविध्य का कारण व्यक्ति से भिन्न ही मानना होगा, किन्तु ऐसी स्थिति व्यक्ति पर नैतिक दायित्व का आरोपण सम्भव नहीं हो पाता है । यदि हम जो कुछ भी करते हैं और जो कुछ भी पाते हैं, उसका कारण बाह्य तथ्य हैं, तो फिर हम किसी भी कार्य के लिए नैतिक दृष्टि से उत्तरदयी ठहराये नहीं जा सकते हैं । यदि व्यक्ति काल, स्वभाव, नियति अथवा ईश्वर की इच्छाओं का एक साधन मात्र है, तो व हम उस कठपुतली के समान है, जो दूसरे के इशारों पर ही कार्य करती है । किन्तु ऐसी स्थिति में पुरुष में इच्छा - स्वातन्त्र्य का अभाव मानने पर नैतिक उत्तरदायित्त्व की समस्या उठती है। सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावना बनाने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को उसके शुभाशुभ कर्मों के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके और यह तभी सम्भव है जब उसके मन में विश्वास हो कि उसे उसकी स्वतन्त्र इच्छा से किये गये अपने ही कर्मों का परिणाम प्राप्त होता है, यही कर्मसिद्धान्त है। ज्ञातव्य है कि कर्मसिद्धान्त ईश्वरीय कृपा या अनुग्रह के विरोध में जाता है, वह यह मानता है कि ईश्वर भी कर्मफल - व्यवस्था को अन्यथा नहीं कर सकता है। कर्म का नियम ही सर्वोपरि है । कर्मसिद्धान्त और कार्यकारण का नियम
आचार के क्षेत्र में इस कर्मसिद्धान्त की उतनी ही आवश्यकता है जितनी विज्ञान के क्षेत्र में कार्य - कारण - सिद्धान्त की । जिस प्रकार कार्य-कारण- सिद्धान्त के अभाव में वैज्ञानिक व्याख्यायें असम्भव होती हैं, उसी प्रकार कर्म-सिद्धान्त के अभाव में नीतिशास्त्र भी अर्थ - शून्य हो जाता है ।
जैन धर्मदर्शन
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