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________________ भव बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। यह श्लोक हरिभद्र के लोकतत्त्वनिर्णय में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है, यथा - यस्य अनिखिलाश्च दोषा न संति, सर्वे गुणश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। वस्तुतः 2500 वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। हरिभद्र के पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों ने जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है, फिर भी उनकी सृजनधार्मिकता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें, किन्तु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी कृतियों का प्रणयन किया हो। __अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दृष्टियों से किया जाता है, एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से। आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गये ग्रन्थों में भी आलोचना करनी होती है, तो वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय भी नहीं करता है और उनकी अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है। उदाहरण के रूप में स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचाकों ने कभी भी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया है। यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है, अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उसके सम्बनध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं। हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्ता समुच्चय में कपिल को महामुनि और भगवान बुद्ध को महाचिकित्सक कहा है। हरिभद्र के अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय में इस दृष्टिकोण का एक निर्मल विकास परिलक्षित होता है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं - यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः। जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिः सुखावहः । जैन धर्मदर्शन 339
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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