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धुवेइ वा” इस त्रिपदी का उपदेश दिया था। समस्त जैन दार्शनिक वाङ्गमय का विकास इसी त्रिपदी के आधार पर हुआ है। परमार्थ या सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में महावीर का उपर्युक्त कथन ही जैन दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व है।
इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य ये तीनों ही सत् के लक्षण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने सत् को परिभाषित करते हुए कहा है कि सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है (तत्त्वार्थ, 5/29) उत्पाद और व्यय सत् के परिवर्तनशील पक्ष को बताते हैं, तो ध्रौव्य उसके अविनाशी पक्ष को।।
सत् का ध्रौव्य गुण उसके उत्पत्ति एवं विनाश का आधार है, उनके मध य योजक कड़ी है। यह सत्य है कि विनाश के लिए उत्पत्ति और उत्पत्ति के लिए विनाश आवश्यक है, किन्तु उत्पत्ति और विनाश दोनों के लिए किसी ऐसे आधारभूत तत्त्व की भी आवश्यकता होती है, जिसमें उत्पत्ति के लिए विनाश की ये प्रक्रियायें घटित होती हों। यदि हम ध्रौव्य पक्ष को अस्वीकार करेंगे तो उत्पत्ति और विनाश परस्पर असम्बन्धित हो जायेंगे और सत्ता अनेक एवं असम्बन्धित क्षणजीवी तत्त्वों में विभक्त हो जायेगी। इन परस्पर असम्बन्धित क्षणिक सत्ताओं की अवधारणा से व्यक्तित्व की अवधारणा से व्यक्तित्व की एकात्मकता का ही विच्छेद हो जायेगा, जिसके अभाव में नैतिक उत्तरदायित्व और कर्मफल-व्यवस्था ही अर्थविहीन हो जायेगी। इसी प्रकार एकान्त ध्रौव्यता को स्वीकार करने पर इस जगत् में चल रहे उत्पत्ति और विनाश के क्रम को समझाया नहीं जा सकेगा। जैन दर्शन में सत् के इस अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्य और गुण तथा परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य को गुण एवं पर्याय से युक्त कहा गया है। चूंकि द्रव्य की इस अवधारणा का विकास भी पंचास्तिकाय की अवधारणा से हुआ है अतः यहाँ हम पंचास्तिकाय की अवधारणा की चर्चा करेंगे।
संदर्भ1. आचारांग - 1/1/1/1 2. ऋषिभाषित 31/9 3. भगवती 2/10/124-130 4. ऐगेआया - स्थानांग 1/1 5. उत्तराध्ययन 36/48+211 6. आप्तमीमांसा 40-41 7. स्याद्वादमंजरी कारिका 18 की टीका
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान