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________________ ऐसे दुश्शील, साधुः पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन, नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है" ? अरे इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष मार्ग के बैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो । अरे! देव द्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे इन अधर्म और अनीति के पोषक अनाचार का सेवन करने वाले और साधुका के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे ( दुराचारियों के समूह) को राग या द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद- प्रायश्चित होता है" । हरिभद्र पुनः कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह है, आक्रोश है । वे तत्कालीन जैन संघ को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो उनका आदर-सत्कार मत करो अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप धूमिल हो जायेगा । वे कहते हैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाये तो नीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा”। वस्तुतः हरिभद्र की यह क्रान्तिदर्शिता यथार्थ ही है क्योंकि दुराचारियों के सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है । वे स्वयं कहते हैं जो जिसकी मित्रता करता है तत्काल वैसा हो जाता है तिल जिस फूल में डाल दिये जाते हैं, उसी की गन्ध के हो जाते है" । हरिभद्र इस माध्यम से समाज को उन लोगों से सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डाले अधर्म में जीते हैं क्योंकि ऐसे दुराचारियों की अपेक्षा भी समाज के लिए अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है उसी प्रकार सुश्रावक के लिए हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है । दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सान्निध्य तो जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है" ।) फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे । वे लोगों के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है । वक्र जडो का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन है । (यदि कठोर आचार की बात कहेगें तो 1 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 324
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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