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________________ हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भाव धर्म को ही प्रधान मानते हैं वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध से घृत प्रकट होता है उसी प्रकार धर्म मार्ग के द्वारा दूध रूपी आत्मा घृत रूप परमात्म तत्त्व को प्राप्त होता है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भावगत धर्म है वही विशुद्धि का हेतु है' । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं । उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग 50-60 गाथाओं में, आत्म शुद्धि निमित्त जिन पूजा का और उसमें होने वाली अशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है। मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है । यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और -विशुद्धि नहीं होता है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मूल्यांकन करते हैं । वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकेषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहतें हैं । यही उनकी क्रान्तधर्मिता है । आत्म हरिभद्र के युग में जैन परम्परा में चैत्यवास का विकास हो चुका था । अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला वर्ग जिन पूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर रहा था अपितु जिन, द्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी विषय वासनाओं की पूर्ति में उपयोग कर रहा था । जिन प्रतिमा और जिन मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान भूमि या साधना भूमि न बनकर भोग भूमि बन रहे थे । हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिए यह सब देख पाना सम्भव नहीं था । अतः उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम चलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं - द्रव्य पूजा तो गृहस्थों के लिए है, मुनि के लिए तो केवल भाव पूजा है, जो केवल मुनि वेशधारी है मुनि आचार का भी पालन नहीं करता है, उसके लिए भी द्रव्य-पूजा जिन-प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण 1 / 273 ) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा पूजा आदि कार्यों में उलझने पर मुनि वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका पूर्वानुमान कर लिया था। यति संस्था के विकास से उनका यह अनुमान सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन - द्रव्य को अपनी वासना पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते है- जो श्रावक जिन जैन धर्मदर्शन T 321
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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