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ही साध्य है न तो इस लोक में और परलोक में ही ऐसे आदमी की रक्षा कर सकता है। धन के असीम मोह से मूढ़ बना हुआ वह व्यक्ति, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग को जानते हुए भी मार्ग नहीं देखता, वैसे ही वह भी न्यायमार्ग या धर्ममार्ग को
ते हुए भी उसे नहीं देख पाता । जैसे एक ही नगर को जानेवाले भिन्न-भिन्न मार्ग परस्पर भिन्न दिशाओं में स्थित होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं कहे जाते, उसी प्रकार परस्पर विरोधी पुरुषार्थ मोक्षाभिमुख होने पर असपत्न ( अविरोधी) बन जाते हैं। यहीं उनमें एक मूल्यात्मक तारतम्य स्पष्ट हो जाता है, जिसमें सर्वोच्च स्थान मोक्ष का है, उसके बाद धर्म का स्थान है । धर्म के बाद काम और सबसे अन्त में अर्थ का स्थान आता है। किन्तु अर्थपुरुषार्थ जब लोकोपकार के लिए होता है, तब उसका स्थान कामपुरुषार्थ से ऊपर होता है । पाश्चात्य विचारक अरबन ने मूल्य निर्धारण के तीन नियम प्रस्तुत किये हैं- (1) साधनात्मक या परतः मूल्यों की अपेक्षा साध यात्मक स्वतः मूल्य उच्चतर है; ( 2 ) अस्थायी या अल्पकालिक मूल्यों की अपेक्षा स्थायी एवं दीर्घकालिक मूल्य उच्चतर है; (3) असृजक मूल्यों की अपेक्षा सृजक मूल्य उच्चतर है। 36
यदि प्रथम नियम के आधार पर विचार करें, तो धन, सम्पत्ति, श्रम, आदि आर्थिक मूल्य जैविक, सामाजिक और धार्मिक ( काम और धर्म) मूल्यों की पूर्ति के साधनमात्र हैं, वे स्वतः साध्य नहीं हैं। भारतीय चिन्तन में धन की तीन गतियाँ मानी गयी हैं- (1) दान, (2) भोग और (3) नाश। वह दान के रूप में धर्मपुरुषार्थ का और भोग के रूप में कामपुरुषार्थ का साधन सिद्ध होता है । कामपुरुषार्थ सामान्य रूप में स्वतः साध्य प्रतीत होता है, लेकिन विचारपूर्वक देखने पर वह भी स्वतः साध्य नहीं कहा जा सकता। प्रथमतः जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में जो भोग किये जाते हैं, वे स्वयं साध्य नहीं, वरन् जीवन या शरीर - रक्षण के साधनमात्र हैं । इन सबका साध्य स्वास्थ्य एवं जीवन है। हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए नहीं जीते हैं । यदि हम कामपुरुषार्थ को कला, दाम्पत्य, रति या स्नेह के रूप में मानें तो वह भी आनन्द का एक साधन ही ठहरता है । इस प्रकार कामपुरुषार्थ का भी स्वतः मूल्य सिद्ध नहीं होता । उसका जो भी स्थान हो सकता है वह मात्र उसके द्वारा व्यक्ति के आनन्द में की गयी अभिवृद्धि पर निर्भर करता है । यदि अल्पकालिकता या स्थायित्व की दृष्टि से विचार करें तो कामपुरुषार्थ मोक्ष एवं धर्म की अपेक्षा अल्पकालिक ही है । भारतीय विचारकों ने कामपुरुषार्थ को निम्न स्थान उसकी क्षणिकता के आधार पर ही दिया है । तीसरे अपने फल या परिणाम के आधार पर भी काम-पुरुषार्थ निम्न स्थान पर ठहरता है, क्योंकि वह अपने पीछे दुष्पूर- तृष्णा को जैन धर्मदर्शन
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