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________________ 1. अर्थ (आर्थिक मूल्य)- जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है; अतः दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध को करना ही अर्थ पुरुषार्थ है। 2. काम (मनोदैहिक मूल्य) - जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाना अर्थ पुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना काम पुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में विविध इंद्रियों के विषयों का भोग काम पुरुषार्थ है। 3. धर्म (नैतिक मूल्य) - जिन नियमों के द्वारा सामाजिक जीवन या लोकव्यवहार सुचारू रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो और जो व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाये, वह धर्म पुरुषार्थ है। 4. मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य) - आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है। जैन दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय सामान्यतया यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। जैन-विचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है। सभी काम दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना जायेगा। कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। जैन विचारकों ने सदैव ही स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है। वे यह मानते है कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के भोग का अधिकार हैं। दूसरों द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का उसे कोई अधिकार नहीं। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पत्र के लिए बहन होती है और दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है। दोनों का ही भोग वर्जित है। अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है। जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन-किन साधनों से धनार्ज न करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है। ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वणिकों को वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास है। यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं। लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं। यदि वे एकान्त रूप से हेय होते तो आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव स्त्रियों की 64 और पुरूषों की 72 कलाओं का विधान कैसे करते? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएँ अर्थ और काम जैन धर्मदर्शन 307
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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