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________________ अनैकान्तिक, व्यापक एवं बहु-आयामी प्रत्यय है, वह एक व्यवस्था है, एक संस्थान है, उसमें भौतिक और आध्यात्मिक, श्रेय और प्रेय, वांछित और वांछनीय, उच्च और निम्न, वासना और विवेक सभी समन्वित हैं । वे यथार्थ और आदर्श की खाई के लिए एक पुल का काम करते हैं । अतः उन्हें किसी ऐकान्तिक एवं निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता । मूल्य एक नहीं, अनेक हैं और मूल्य-दृष्टियाँ भी अनेक हैं । अतः प्रत्येक मूल्य किसी दृष्टि विशेष के प्रकाश में ही आलोकित होता है। वस्तुतः मूल्यों की और मूल्य - दृष्टियों की इस अनेकविधता और बहुआयामी प्रकृति को समझे बिना मूल्यों का सम्यक् मूल्यांकन भी सम्भव नहीं हो सकता है। मूल्यबोध की सापेक्षता 1 मूल्य-बोध में मानवीय चेतना के विविध पहलू एक-दूसरे से संयोजित होते हैं। मूल्यांकन करने वाली चेतना भी बहुआयामी है, उसमें ज्ञान, भाव और संकल्प तीनों ही उपस्थित रहते हैं । विद्वानों ने इस बात को सम्यक् प्रकार से न समझ कर ही मूल्यों के स्वरूप को समझने में भूल की है । यहाँ हमें दो बातों को ठीक प्रकार से समझ लेना होगा-एक तो यह कि सभी मूल्यों का मूल्यांकन चेतना के किसी एक ही पक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है, दूसरे यह कि मानवीय चेतना के सभी पक्ष एक-दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष होकर कार्य नहीं करते हैं । यदि हम इन बातों की उपेक्षा करेंगे तो हमारा मूल्य-बोध अपूर्ण एवं एकांगी होगा । फिर भी मूल्य - दर्शन के इतिहास में ऐसी उपेक्षा की जाती रही है । एरेनफेल्स ने मूल्य को इच्छा (डिजायर ) का विषय माना तो माइनांग ने उसे भावना ( फीलिंग) का विषय बताया। पैरी ने उसे रुचि (इंट्रेस्ट) का विषय मानकर मूल्य-बोध में इच्छा और भावना का संयोग माना है । सारले ने उसे अनुमोदन (एप्रीसियेशन) का विषय मान कर उसमें ज्ञान और भावना का संयोग माना है। फिर भी ये सभी विचारक किसी सीमा तक एकांगिता के दोष से नहीं बच पाये हैं। 1 मूल्य-बोध न तो कुर्सी और मेज के ज्ञान के समान तटस्थ ज्ञान है और न प्रेयसी के प्रति प्रेम की तरह मात्र भावावेश ही । वह मात्र इच्छा या रुचिका निर्माण भी नहीं है। वह न तो निरा तर्क है और न निरी भावना या संवेदना । मूल्यात्मक चेतना में इष्टत्व, सुखदाता अथवा इच्छा-तृप्ति का विचार अवश्य उपस्थित रहता है, किन्तु यह इच्छा - तृप्ति का विचार या इष्टत्व का बोध विवेक - रहित न होकर विवेक-युक्त होता है । इच्छा स्वयं में कोई मूल्य नहीं, उसकी अथवा उसके विषय की मूल्यात्मकता का निर्णय स्वयं इच्छा नहीं, विवेक करता है, भूख स्वयं मूल्य नहीं है, रोटी मूल्यवान है, किन्तु रोटी की मूल्यात्मकता भी स्वयं रोटी पर नहीं अपितु जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 300
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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