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________________ वैश्या-वृत्ति, सम-लैंगिकता, मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक है- किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है? नग्नता को, शासनतन्त्र की आलोचना की अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना अनैतिक नहीं कहा जा सकेगा । मानवों के समुदाय विशेष के द्वारा किसी कर्म को विहित या वैधानिक मान लेने मात्र से वह नैतिक नहीं हो जाता। गर्भपात वैधानिक हो सकता है लेकिन नैतिक कभी नहीं । नैतिक मूल्यवत्ता निष्पक्ष विवेक के प्रकाश में आलोकित होती है । वह सामाजिक विहितता या वैधानिकता से भिन्न है । समाज किसी कर्म को विहित या अविहित बना सकता है, किन्तु उचित या अनुचित नहीं । 1 (3) I पुनः नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता फैशनों की परिवर्तशीलता के समान भी नहीं है, क्योंकि नैतिक मूल्य मात्र रूचि - सापेक्ष न होकर स्वयं रूचियों के सृजक भी है। अतः जिस प्रकार रूचियाँ या तद्जनित फैशन बदलते हैं, जैसे नैतिक मूल्य नहीं बदलते हैं। फैशन जितनी तेजी से बदलते रहते हैं, उतनी तेजी से कभी भी नैतिक मूल्य नहीं बदलते । यह सही है कि नैतिक मूल्यों में देश, काल एवं परिस्थितियों के आधार पर परिवर्तन होता है, किन्तु फिर भी उनमें एक स्थाई तत्व होता है । अहिंसा, न्याय, आत्म- त्याग, संयम आदि अनेक नैतिक मूल्य ऐसे हैं, जिनकी मूल्यवत्ता सभी देशों एवं कालों में समान रूप से स्वीकृत रही है। यद्यपि इनमें अपवाद माने गये हैं, किन्तु अपवाद की स्वीकृति इनकी मूल्यवत्ता का निषेध नहीं होकर, वैयक्तिक असमर्थता अथवा परिस्थितिविशेष में उनकी सिद्धि की विवशता की सूचक है। अपवाद अपवाद है, वह मूल नियम का निषेध नहीं है । इस प्रकार कुछ 'नैतिक मूल्य अवश्य ही ऐसे हैं जो सार्वभौम और अपरिवर्तनीय हैं। साथ ही नैतिक मूल्यों का परिवर्तन फैशनों के परिवर्तन की अपेक्षा कहीं अधिक स्थायित्व लिये हुए होता है। फैशन एक दशाब्द से दूसरे दशाब्द में ही नहीं, अपितु दिन-प्रतिदिन बदलते रहते हैं; किन्तु नैतिक मूल्य इस प्रकार नहीं बदलते हैं । ग्रीक नैतिक मूल्यों का ईसाइयत के द्वारा तथा भारतीय वैदिक युग के मूल्यों का औपनिषदिक एवं जैन-बौद्ध संस्कृतियों द्वारा आंशिक रूप से मूल्यातरण अवश्य हुआ, किन्तु श्रमण-संस्कृति तथा ईसायत द्वारा स्वीकृत मूल्यों का इन दो हजार वर्षों में भी मूल्यांतरण नहीं हो सका है। आज जिस आमूल परिवर्तन की बात कही जा रही है या जिन नये मूल्यों के सृजन की अपेक्षा की जा रही है, वह भी इन पूर्ववर्ती मूल्य-धाराओं के ही किन्हीं मूल्यों की प्रधान रूप से स्वीकृति या मूल्य - समन्वय से अधिक कुछ नहीं । मूल्य - विश्व में आमूल परिवर्तन या निरपेक्ष परिवर्तन सम्भव नहीं जैन धर्मदर्शन 289
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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