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________________ प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक विकास एवं सांस्कृतिक प्रदेय प्रवर्तक एवं निर्वतक धर्मों का मनोवैज्ञनिक विकास ___ मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभासपूर्ण है। वह स्वभावतः परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर पर वह वासनाओं से चालित है और वहाँ उस पर यान्त्रिक नियमों का आधिपत्य है किन्तु चैत्तसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें संकल्प स्वातन्त्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतंत्र है किन्तु चैत्तसिक स्तर पर वह स्वतंत्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक ओर वह वासनात्मक अहं (Id) से अनुशासित है तो दूसरी ओर आदर्शात्मा (Ego) से प्रभावित भी है। वासनात्मक अहं (Id) उसकी शारीरिक मांगो की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका आध्यात्मिक स्वभाव है, वह उसका निज स्वरूप है। जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल चेतत -समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिए इन दोनों में से किसी की भी पूर्ण अपेक्षा असम्भव है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच सांग-सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के दो छोर हैं। उसकी जीवन-धारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है।। मानव जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिए ‘भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिए ‘संयम' या विराग की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है। वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। यहीं दो अलग-अलग जीवन-दृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार वासना और भोग होते हैं तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या दृष्टि और दूसरी को सम्यक् दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषद् में इन्हें क्रमशः प्रेय और श्रेय जैन धर्मदर्शन 279
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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