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________________ आप में परिपूर्ण, स्वतन्त्र और विश्व का मौलिक घटक है। जैन परम्परा में सामान्यता सत्, तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, अपर ध्येय, शुद्ध और परम इन सभी को एकार्थक या पर्यायवाची माना गया है । बृहद्नयचक्र में कहा गया है ततं तह परमट्ठ दव्वसहायं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा ।। - " बृहद्नयचक्र, 411 जैनागमों में विश्व के मूलभूत घटक के लिए अस्तिकाय, तत्त्व और द्रव्य शब्दों का प्रयोग मिलता है । उत्तराध्ययनसूत्र में हमें तत्त्व और द्रव्य के स्थानांग में अस्तिकाय के उल्लेख मिलते हैं । कुंदकुंद ने अर्थ, पदार्थ, तत्त्व, द्रव्य और अस्तिकाय - इन सभी शब्दों का प्रयोग किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि आगमयुग में तो विश्व के मूलभूत घटकों के लिए अस्तिकाय, तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्दों का प्रयोग होता था । 'सत्' शब्द का प्रयोग आगम युग में नहीं हुआ । उमास्वामी ने द्रव्य के लक्षण के रूप में 'सत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। वैसे अस्तिकाय शब्द प्राचीन और जैन दर्शन का अपना विशिष्ट परिभाषिक शब्द है । यह अपने अर्थ की दृष्टि से सत् के निकट है, क्योंकि दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही सूचक हैं। तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्द के प्रयोग सांख्य और न्याय-वैशेषिक दर्शनों में भी मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वामी ने भी द्रव्य और सत् दोनों को अभिन्न बताया है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सत, परमार्थ, परमतत्त्व और द्रव्य सामान्य दृष्टि से पर्यायवाची होते हुए भी विशेष दृष्टि एवं अपने व्युत्पत्तिलभ्य - अर्थ की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं । वेद, उपनिषद् और उनसे विकसित वेदान्त दर्शन की विभिन्न दार्शनिक धाराओं में सत् शब्द प्रमुख रहा है। ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि "एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात् सत् (परम तत्त्व) एक ही है- विप्र (विद्वान) उसे अनेक रूप से कहते हैं । किन्तु दूसरी ओर स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित दर्शन परम्पराओं - विशेष रूप से वैशेषिक दर्शन में द्रव्य शब्द प्रमुख रहा है। ज्ञातव्य है कि व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से सत् शब्द अस्तित्व का अथवा प्रकारान्तर से नित्यता या अपरिवर्तनशीलता का एवं द्रव्य शब्द परिवर्तनशीलता का सूचक है। सांख्यों एवं नैयायिकों ने इसके लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि न्यायसूत्र के भाष्यकार ने प्रमाण आदि 16 तत्त्वों के लिए सत् शब्द का प्रयोग भी किया है, फिर भी इतना स्पष्ट है कि न्याय और वैशेषिक दर्शन में क्रमशः तत्त्व और द्रव्य शब्द ही अधिक प्रचलित रहे हैं। सांख्य दर्शन भी प्रकृति और पुरुष इन दोनों को तथा इनसे उत्पन्न बुद्धि, जैन तत्त्वदर्शन 15
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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