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________________ मध्यवर्गीय दृष्टिकोण अपनाया है। वे बौद्धों के समान यह मानने के लिए सहमत नहीं हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का संस्पर्श ही नहीं करता है। किन्तु वे मीमांसकों के समान यह भी नहीं मानना चाहते हैं कि शब्द अपने विषय का समग्र चित्र प्रस्तुत कर सकता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार शब्द और उसके द्वारा संकेतित अर्थ या विषय में एक सम्बन्ध तो है, किन्तु वह संबंध ऐसा नहीं है कि शब्द अपने विषय या अर्थ का स्थान ही ले ले। दूसरे शब्दों में शब्द और उनके विषयों में तद्रूपता का सम्बन्ध नहीं है। प्रभाचन्द्र शब्द और अर्थ में तद्रूप संबंध का खण्डन करते हुए कहते हैं। कि मोदक शब्द के उच्चारण से मीठे स्वाद की अनुभूति नहीं होती है, अतः मोदक शब्द और मोदक नामक वस्तु-दोनों भिन्न-भिन्न है। (न्यायकुमुदचन्द्र भाग 2, पृ 536) किन्तु इससे यह भी नहीं समझ लेना चाहिए कि शब्द और उनके विषय अर्थ के बीच कोई संबंध ही नहीं है। शब्द अर्थ या विषय का संकेतक तो है, किन्तु उसका स्थान नहीं ले सकता है। अर्थ बोध की प्रक्रिया में शब्द को अपने अर्थ या विषय का प्रतिनिधि (रिप्रजेन्टेटिव) तो कहा जा सकता है, फिर भी शब्द अपने विषय या अर्थ का हूबहू चित्र नहीं है। जैसे नक्शे में प्रदर्शित नदी वास्तविक नदी की संकेतक तो है, किन्तु न तो वह वास्तविक नदी की संकेतक तो है, किन्तु न तो वह वास्तविक नदी है और उसका हूबहू प्रतिबिंब ही है, वैसे ही शब्द और उनसे निर्मित भाषा भी अपने अर्थ या विषय की संकेतक तो है, किन्तु उसका हूबहू प्रतिबिंब नहीं है। फिर भी वह अपने विषय का एक चित्र श्रोता या पाठक के सम्मुख अवश्य प्रस्तुत कर देता है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञापक और ज्ञाप्य संबंध है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ (विषय) में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य संबंध है यद्यपि जैन दार्शनिक शब्द और उसके अर्थ में सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि भाषा के प्रचलन में अनेक बार शब्दों के अर्थ (मीनिंग) बदलते रहे हैं और एक समान उच्चारण के शब्द भी दो भिन्न भाषाओं में भिन्न अर्थ रखते हैं। शब्द अपने अर्थ का संकेतक अवश्य है, किन्तु अपने अर्थ के साथ उसका नित्य तथा तद्रूप संबंध नहीं है। जैन दार्शनिक मीमांसको के समान शब्द और अर्थ में नित्य तथा तद्रूप सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हस्त संकेत आदि अपने अभिव्यंजनीय अर्थ के साथ अनित्य रूप से संबंधित होर इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति कर देते हैं, उसी प्रकार शब्द संकेत भी अपने अर्थ से अनित्य रूप से संबंधित होकर भी अर्थबोध करा देते हैं। शब्द और अर्थ (विषय) दोनों की विविक्त सत्ताएं है। अर्थ में शब्द नहीं है और न आर्थ शब्दात्मक ही है। फिर भी दोनों में एक ऐसा संबंध अवश्य है, जिससे शब्दों में अपने अर्थ के वाचक होने की सीमित सामर्थ्य है। शब्द में अपने अर्थ या विषय का बोध कराने की एक सहज शक्ति होती है, जो उसकी संकेत शक्ति और प्रयोग पर निर्भर करती है। 252 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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