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________________ शब्द की वाच्य शक्ति आत्माभिव्यक्ति प्राणीय प्रकृति प्रत्येक प्राणी की यह सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी अनुभूति एवं भावनाओं को दूसरे प्राणियों के सम्मुख प्रकट करता है और इस प्रकार दूसरों को भी अपने ज्ञान, अनुभूति और भावना का सहभागी बनाता हैं। प्राणी ही इसी पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति को उमास्वामि ने तत्त्वार्थ-सूत्र (5/21) में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्" नामक सूत्र के द्वारा स्पष्ट किया है। वस्तुतः यह पारस्परिक सहभागिता की प्रवृत्ति ही सामाजिक जीवन की आधार-भूमि है। हम सामाजिक हैं क्योंकि हम अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं में दूसरों को सहभागी बनाए बिना अथवा दूसरों की भावनाओं एवं अनुभूतियों में सहभागी बने बिना नहीं रह सकते। यदि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर बन्दी बना दिया जाए, जहां उसे जीवन जीने की सारी सुख-सुविधाएं तो उपलब्ध हों, किन्तु वह अपनी अनुभूतियों एवं भावनाओं को अभिव्यक्ति न दे सकें, निश्चय ही ऐसे व्यक्ति को जीवन निस्सार लगने लगेगा और सभंव है कि वह कुछ समय पश्चात् पागल होकर आत्महत्या कर ले। मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षी भी बिना आत्माभिव्यक्ति के नहीं जी सकते हैं। संक्षेप में आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से दूसरों को अपनी अनुभूति और भावनाओं का सहभागी बनाना और दूसरों की अभिव्यक्तियों के अर्थ को समझकर उनकी अनुभूति और भावनाओं में सहभागी बनना यह प्राणीय प्रकृति है। अब मूल प्रश्न यह है कि यह अनुभूति और भावनाओं का सम्प्रेषण कैसे होता है? आत्माभिव्यक्ति के साधन विश्व के समस्त प्राणी अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति या तो शारीरिक संकेतों के माध्यम से करते हैं या ध्वनि संकेतों के द्वारा इन ध्वनि-सकेंतों के आधार पर ही बोलियों एवं भाषाओं का विकास हुआ है। विश्व के समस्त प्राणियों में मनुष्य इसी लिए सबसे अधिक सौभाग्यशाली है कि उसे अभिव्यक्ति या विचार-सम्प्रेषण के लिए भाषा मिली हुई है। शब्द प्रतीकों, जो कि सार्थक ध्वनि संकेतों के सुव्यवस्थित रूप हैं, के माध्यम से अपने विचारों एवं भावों के अभिव्यक्ति दे पाना यही उसकी विशिष्टता है। क्योंकि भाषा के माध्यम से मनुष्य 250 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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