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देखने के लिए तद्तद् ग्रन्थों का निर्देश कर दिया गया। इस प्रकार, जैन साहित्यिकसाक्ष्यों के आधार पर माना जा सकता है कि जैन तत्त्वमीमांसा का कालक्रम में विकास हुआ है। यद्यपि परम्परागत मान्यता जैन-दर्शन को सर्वज्ञ प्रणीत मानने के कारण इस ऐतिहासिक विकासक्रम को अस्वीकार करती है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में षद्रव्य, सात या नौ तत्त्व, षट्जीव निकाय की अवधारणा का जो विकास हुआ है, उसके मूल में पंचास्तिकाय की अवधारणा ही है, क्योंकि नवतत्त्वों की अवधारणा के मूल में भी जीव और पुद्गल मुख्य हैं, जो जीव के कर्म-पुद्गलों के साथ संबंध को सूचित करते हैं। कर्म-पुद्गलों का जीव की ओर आना आस्रव है, जो पुण्य या पाप-रूप होता है। जीव के साथ कर्म-पुद्गलों का संश्लिष्ट होना बंध है। कर्मपुद्गलों का आगमन रुकना संवर है और उनका आत्मा या जीव से अलग होना निर्जरा है। अन्त में, कर्म-पुद्गलों का आत्मा से पूर्णतः विलग होना मोक्ष है। जैन आचार्यों ने पंचास्तिकाय की अवधारणा का अन्य दर्शन परम्पराओं में विकसित द्रव्य की अवधारणा से समन्वय करके षद्रव्यों की अवधारणा का विकास किया। अग्रिम पंक्तियों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षद्रव्यों की आधारभूत सत् की अवधारणा का और विशेष रूप से द्रव्य की परिभाषा का जैन-दर्शन में कैसे विकास हुआ है?
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान