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________________ (3) तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय दृष्टि आत्मा के बन्धन, मुक्ति, कर्तृत्व, भोक्त्तृव आदि प्रत्ययों को महत्व नहीं देती है, वे उसके लिए गौण होते हैं क्योंकि वे आत्मा की पर्याय दशा को ही सूचित करते हैं। जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि में तो बन्धन और मुक्ति आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ऐसी मौलिक धारणाएं हैं जिसे वह स्वीकार करके ही आगे बढ़ती है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द एवं अन्य जैनाचार्यों ने निश्चय में दो भेद स्वीकार किए हैं। आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले निश्चयनय (परमार्थदृष्टि) को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं जबकि आचारलक्षी निश्चयदृष्टि को अशुद्ध कहते हैं। अन्य आचार्यों ने निश्चयनय के द्रव्यार्थिक निश्चयनय और पर्यायार्थिक निश्चयनय ऐसे दो विभाग किये हैं। इसमें द्रव्यार्थिक निश्चयनय तत्त्वदर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है जबकि पर्यायार्थिक निश्चयनय आचार दर्शन के क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली निश्चयदृष्टि है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों की दृष्टि से नैतिकता का विचार इसी तथ्य को जैन विचारणा के अनुसार एक दूसरी प्रकार से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में द्रव्ययार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो दृष्टिकोण या नय भी स्वीकार किए गए हैं। सांख्यदर्शन परिणामवाद को मानता है लेकिन वह केवल प्रकृति की दृष्टि से, जबकि जैन दर्शन जड़ और चेतन उभय परम तत्वों की दृष्टि से परिणामवाद मानता है। सत् का एक पक्ष वह है जिसमें वह प्रतिक्षण बदलता रहता है जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इन परिवर्तनों के पीछे है। जैनदर्शन उस अपरिवर्तनशील शाश्वत पक्ष को अपनी पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार कर लेता है लेकिन नैतिकता की सारी सम्भावना एवं सारी विवेचना तो इस परिवर्तनशील पक्ष के लिए है - नैतिकता एक गत्यात्मकता है, एक प्रक्रिया है, एक होना है (Becoming) जो परिवर्तन की दशा में ही सम्भव है। उस अपरिवर्तनीय पक्ष की दृष्टि से जो मात्र (Being) है, कोई नैतिक विचारणा सम्भव ही नहीं। जैन विचारणा यही भी नहीं कहती है कि हमारा नैतिक आदर्श परिर्तनशीलता (becoming) से अपरिवर्तनशीलता (being) की अवस्था को प्राप्त करना है क्योंकि यदि सत् स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यगुण युक्त है तो फिर मोक्ष अवस्था में यह गुण रहेंगे। जैन विचारणा मोक्षावस्था में आत्मा का परिणामीपन स्वीकार करती है। जैन विचारणा के अनुसार परिवर्तन या पर्याय (Mode) दो प्रकार के होते हैं- एक स्वभाव पर्याय या सरूप-परिवर्तन (Homogenous changes) और दूसरे विभावपर्याय या विरूप-परिवर्तन (Hetrogenous changes) होते हैं। जैन नैतिकता का आदर्श मात्र आत्मा को विभाव पर्याय की अवस्था से स्वभाव पर्याय में लेना है। जैन ज्ञानदर्शन 219
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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