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निश्चय ( परमार्थ) और व्यवहार :
किसका आश्रय लें?
चाहे तत्वज्ञान का क्षेत्र हो या आचरण का, बौद्धिक विश्लेषण हमारे सामने यथार्थता या सत्य के दो पहलू उपस्थित कर देता है, एक वह जैसा कि हमें दिखाई पड़ता है और दूसरा वह जो इस दिखाई पड़ने वाले के पीछे है; एक वह जो प्रतीत होता है, दूसरा वह जो इस प्रतीती के आधार में है। हमारी बुद्धि स्वयं कभी भी इस बात से सन्तुष्ट नहीं होती है कि जो कुछ प्रतीती है वही उसी रूप में सत्य है वरन् वह स्वयं ही उस प्रतीती के पीछे झाँकना चाहती है। वह वस्तुतत्त्व के इन्द्रियगम्य स्थूल स्वरूप से सन्तुष्ट नहीं होकर उसके सूक्ष्म स्वरूप तक जाना चाहती है। दूसरे शब्दों में दृश्य से ही सन्तुष्ट नहीं होकर उसकी तह तक प्रवेश पाना यह मानवीय बुद्धि की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। जब वह अपने इस प्रयास में वस्तुतत्व के प्रतीत होने वाले स्वरूप और उस प्रतीती के पीछे रहे हुए स्वरूप में अन्तर पाती है, तो स्वयं ही स्वतः प्रसूत इस द्विविधा में उलझ जाती है कि इनमें से यथार्थ कौन है ? प्रतीती का स्वरूप या प्रतीती के पीछे रहा हुआ स्वरूप? व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोण की स्वीकृति आवश्यक क्यों?
तत्वज्ञान की दृष्टि से सत् के स्वरूप को लेकर मुख्यतः दो दृष्टियाँ मानी गई है, एक तत्ववाद और 2. अनेक तत्ववाद।' एक तत्ववादी व्यवस्था में परमतत्व एक या अद्वय माना जाता है। यदि परम तत्व एक है तो प्रश्न उठता है यह नानारूप जगत कहाँ से आया ? यदि अनेकता यथार्थ है तो वह एक अनेक रूप में क्यों और कैसे हो गया? यदि एकत्व ही यथार्थ है तो इस प्रतीती के विषय में नानारूपात्मक जगत की क्या व्याख्या? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित उत्तर एकतत्ववाद नहीं दे सकता। इसी प्रकार द्वितत्ववादी या अनेक तत्ववादी दार्शनिक मान्यताएँ उन दो या अनेक तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट करने में असफल हो जाती है क्योंकि सत्ताओं को एक दूसरे से स्वतन्त्र मानकर उनमें पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं किया जा सकता। अद्वैतवाद या एकत्ववाद इस नानारूपात्मक जगत् की व्याख्या नहीं कर सकता और द्वितत्ववाद या अनेक तत्ववाद उन दो अथवा अनेक सत्ताओं में
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान