SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप से खण्डन किया है। बौद्ध परम्परा में प्रमाणशास्त्र में दिङ्नाग (चौथी - पाँचवीं शती) को बौद्ध प्रमाणशास्त्र का प्रथम प्रस्तोता माना जा सकता है । मल्लवादी (चौथी - पाँचवीं शती) आदि प्राचीन जैन आचार्यों ने बौद्ध प्रमाणमीमांसा के खण्डन में पूर्वपक्ष के रूप में दिङ्नाग के ग्रंथों को ही आधार बनाया है । मल्लवादी की कृति द्वादशारनयचक्र में दिङ्नाग की अवधारणाओं को उद्धत करके उनकी समीक्षा की गई है। दिङ्नाग के गुरु बौद्ध विज्ञानवादी असंग के लघुभ्राता वसुबन्ध रहे हैं। यद्यपि वसुबन्धु के ग्रंथों में भी न्यायशास्त्र संबंधी कुछ विवेचन उपलब्ध होते हैं, फिर भी प्रमाणशास्त्र की विवेचना की दृष्टि से दिङ्नाग का प्रमाणसमुच्चय ही बौद्ध परम्परा का प्रथम स्वतंत्र और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। परवर्ती जैन और जैनेतर दार्शनिकों ने बौद्ध प्रमाणमीमांसा के खण्डन में इसे ही आधार बनाया है । दिङ्नाग के पश्चात् बौद्ध न्याय के प्रस्तोताओं में धर्मकीर्ति प्रमुख माने जाते हैं । धर्मकीर्ति के सत्ताकाल को लेकर विद्वानों में कुछ मतभेद है, फिर भी इतना सुनिश्चित है कि वे ईसा की सातवीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान् हैं । जैन विद्वान् पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने उनका काल 620 ईस्वी से 690 ईस्वी माना है, जो समुचित ही प्रतीत होता है । यद्यपि धर्मकीर्ति के पश्चात् भी धर्मोत्तर, अर्चट, शांतरक्षित, कमलशील, देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, प्रज्ञाकरगुप्त, रविगुप्त, कर्नकगौमी आदि अनेक बौद्ध आचार्य हुए हैं, जिन्होंने बौद्ध प्रमाणमीमांसा पर ग्रन्थ लिखे हैं, किंतु प्रस्तुत विवेचना में हम अपने को धर्मकीर्ति तक ही सीमित रखने का प्रयत्न करेंगे। क्योंकि अकलंक (आठवीं शती) आदि जैन आचार्यों ने दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति की स्थापनाओं को ही अपने खण्डन का विषय बनाया है। जहाँ तक जैन प्रमाणशास्त्र का प्रश्न है, उसका प्रारम्भ सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार से होता है । सिद्धसेन दिवाकर को लगभग चौथी - पांचवीं शताब्दी का विद्वान् माना जाता है । उनका न्यायावतार जैन प्रमाणशास्त्र का प्रथम ग्रन्थ है । इसमें प्रमाण की परिभाषा के साथ-साथ प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शब्द) प्रमाणों का उल्लेख हुआ है, यद्यपि इस ग्रंथ की मूल कारिकाओं में बौद्ध प्रमाणशास्त्र के खण्डन का स्पष्ट रूप से कोई निर्देश नहीं है । फिर भी "स्वपराभासिज्ञानं प्रमाणम्” कहकर प्रमाण को मात्र स्वप्रकाशक मानने वाली बौद्ध परम्परा के खण्डन का संकेत अवश्य मिलता है, किन्तु बौद्ध प्रमाणशास्त्र की स्पष्ट समीक्षा का इस ग्रंथ में प्रायः अभाव ही है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से इतना तो निश्चित हो जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र से परिचित अवश्य थे, क्योंकि इस ग्रन्थ में कहीं बौद्धमत से समरूपता और कहीं विरोध परिलक्षित होता है । यद्यपि जैन परम्परा में सिद्धसेन के पूर्व उमास्वामि (तीसरी शती) ने तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान के आगमिक पाँच प्रकारों जैन ज्ञानदर्शन 185
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy