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________________ पुनश्च यदि हम तर्क को प्रमाण नहीं मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि व्याप्ति-ग्रहण तर्क से इतर अन्य किसी प्रमाण से होता है, किन्तु तर्क पर अन्य प्रमाण व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक नहीं हो सकते । सर्वप्रथम इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण की समीक्षा करके देखें कि क्या उनसे व्याप्ति - ग्रहण सम्भव है । इस सम्बन्ध में जैन तार्किकों का उत्तर स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है । लौकिक प्रत्यक्ष अर्थात् ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष से व्याप्ति या अबिनाभाव सम्बन्ध का निश्चय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम तो प्रत्यक्ष का विषय होता है और विशेष के कितने ही उदाहरण । ज्ञान से सामान्य का ज्ञान सम्भव नहीं है; हम मोहन, सोहन आदि हजारों या लाखों मनुष्यों को मरता हुआ देखकर भी उसके आधार पर यह दावा नहीं कर सकते कि सब मनुष्य मरणशील हैं। दूसरे विशेषों के सभी उदाहरणों को जान पाना भी सम्भव नहीं है । पुनः प्रत्यक्ष वर्तमान काल को ही विषय बनाता है जबकि व्याप्ति का निश्चय तो त्रैकालिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं । भूतकाल के अनेकों उदाहरणों का प्रत्यक्ष यह भी गारण्टी नहीं देता है कि भविष्य में भी ऐसा होगा । भूतकाल के अनेकानेक (लगभग सभी) मनुष्य मर गये और व वर्तमान में अनेक मर रहे हैं, किन्तु इससे हम यह कैसे कह सकते हैं कि भविष्यकाल के सभी मनुष्य मरेंगे ही। हो सकता है कि भविष्य में कोई ऐसी औषधि निकल आवे कि मनुष्य अमर हो जावे । प्रत्यक्ष के विषय सदैव ही दैशिक और कालिक तथ्य होते हैं, अतः उससे सार्वभौमिक और सार्वकालिक व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष अथवा प्रेक्षण पर आधारित व्याप्ति स्थापन की कई विधियाँ हैं, जैसे अन्वय, व्यतिरेक, भूयो दर्शन, नियत सहचार दर्शन, व्यभिचार अदर्शन और सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति आदि । इनमें से सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । जहाँ तक सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति का प्रश्न है उसे प्रत्यक्षात्मक कहना भी कठिन है, वह मूलतः जैन दर्शन के 'तर्क' के प्रत्यय से भिन्न नहीं है क्योंकि दोनों की मूल प्रकृति अन्तः प्रज्ञात्मक है, वे इन्द्रिय ज्ञान नहीं अपितु प्रातिभ ज्ञान है । यह सुनिश्चित सत्य है कि मात्र प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध या अबिनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान नहीं हो सकती है जब तक कि वह तर्क या प्रातिभ ज्ञान का सहारा नहीं लेती है । सामान्यतः व्याप्ति स्थापन में अन्वय और व्यतिरेक को महत्वपूर्ण माना जाता है । अन्वय का अर्थ है हेतु और साध्य का सभी उदाहरणों जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 178
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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