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सम्बन्ध के ज्ञान के आधार पर या प्रकृति की समरूपता के नियम के आधार पर सामान्य ज्ञान का दावा किया जाता है वह भी आनुभविक आधार पर तो सिद्ध नहीं होता है। ह्यूम ने इसीलिए उसे एक विश्वास ( Belief) मात्र कहा था । फिर भी यह न तो अन्ध-विश्वास है और न साधारण विश्वास ही, अपितु वह हमारी अन्तःप्रज्ञा की आश्वस्ति है, एक विवेक पूर्ण बौद्धिक आस्था है जिसकी सत्यता के बारे में हमें कोई अनिश्चय नहीं है । यदि हम तर्क के इस स्वरूप को मान्य करते हैं तो उसे कोई प्रतीकात्मक रूप देना कठिन हैं, किन्तु जैन दार्शनिकों ने 'व्याप्तिज्ञानसमूहः' कहकर प्रमाण और प्रमाणफल में अभेद मानते हुए तर्क का तादात्म्य व्याप्ति ज्ञान की जो प्रतिष्ठा है उसी आधार पर तर्क प्रतीकात्मक स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है
(1) हे. सा - सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय दृष्टान्त - भावात्मक उलपम्भ हे - सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय व्यतिरेक दृष्टान्त -
(2) ० सा.
अभावात्मक उपलम्भ
(3) (हे.
(हे.
(4)
(5) (हे सा) V (हे सा
.. स (हे सा
(क) (9)
सा).
सा. हे.)
सा. हे)
(7) S सा S हे
(8) हे
सा
174
हे
सा
हेतु
= साध्य
= सहभाव
=
व्यभिचार अदर्शन- अनुपलम्भ
व्याप्ति सुझाव
संशय
संशय निरसन- व्यभिचार अदर्शन के
D
= आपादन
S
निषेध
S
= आपादन निषेध
इसे निम्न ठोस उदाहरण से भी स्पष्ट किया जाता है- यदि हम वह परम्परागत उदाहरण लें जिसमें धुआं हेतु है और अग्नि साध्य है तो सर्वप्रथम ( 1 ) धुआँ के साथ अग्नि का सहचार देखा जाता है (यद्सत्वेयद्सत्वं) । (2) अग्नि के अभाव में धुएं का भी अभाव देखा जाता है (यद्भावे यद्भावः) । इस प्रकार अन्वय
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
=
आधार पर
व्याप्ति (अभावात्मक)
व्याप्ति (भावात्मक)