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________________ तन्निश्चय' अर्थात् व्यप्तिज्ञान ही तर्क है और तर्क से ही व्याप्ति ( अबिनाभाव आपादन) का निश्चय होता है । जैन दर्शन में तर्क प्रमाण के इन लक्षणों की पुष्टि डॉ. बारलिगे ने न्याय दर्शन के तर्क के स्वरूप की समीक्षा करते हुए अनजानें में कर दी है। उनकी विवेचना के कुछ अंश हैं- "Tarka is something nonempirical, Tarka is that argument which goes to the root of Anuman and so is its Pre-supposition or condition". It gives the relation between Apadya and Apadak in its anuava of vyatireka form. It is clearly the knowledge of the implication which is evidently presupposed by any vyapti Tarka indicates the relation which is presupposed by vyapti. (See: A modern introduction to Indian Logic p. 123 -125) वस्तुतः तर्क को अन्तर्बोधात्मक या अन्तः प्रज्ञात्मक प्रातिभ ज्ञान कहना इसलिए आवश्यक है कि उनकी प्रकृति इन्द्रियानुभवात्मक ज्ञान अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष (Empirical knowledge or perception) से और बौद्धिक निगमनात्मक अनुमान (Deductive inference) दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय (Non-empirical) और अति-बौद्धिक (Super rational) है क्योंकि वह अतीन्द्रिय एवं अमूर्त सम्बन्धों (Non- empirical reiations) को अपने ज्ञान का विषय बनाता है। उसके विषय हैं- जाति-उपजाति सम्बन्ध, जाति-व्यक्ति सम्बन्ध, सामान्य-विशेष सम्बन्ध, कार्यकारण सम्बन्ध आदि । वह आपादन ( Implication), अनुवर्तिता (Entailment), वर्ग सदस्यता ( Class membership), कार्यकारणता (Causality) और सामान्यता (Universality) का ज्ञान है । वह वस्तुओं को ही नहीं, अपितु उनके तात्विक स्वरूप एवं सम्बन्धों को भी जानता है इसलिए उसे आपादान का नाम (Knowedge of imlication) भी कहा जा सकता है। तर्क उन नियमों का दृष्टा (यहाँ मैं दृष्टा शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूं) है, जिसके द्वारा विश्व की वस्तुयें परस्पर सम्बन्धित या असम्बन्धित हैं, जिनके आधार पर सामान्य वाक्यों की स्थापना कर उनसे अनुमान निकाले जाते हैं और जिन्हें पाश्चात्य आगमनात्मक तर्कशास्त्र में कार्य-कारण और प्रकृति की समरूपता के नियमों के रूप में तथा निगमनात्मक तर्कशास्त्र में विचार के नियमों के रूप में जाना जाता है और जो क्रमशः आगमन और निगमन की पूर्व - मान्यता के रूप में स्वीकृत है । इस प्रकार तर्क प्रमाण की विषय वस्तु तर्क शास्त्र की अधिमान्यतायें (Postulates of Logic and Reasoning) है वह प्रत्यक्ष और अनुमान से तथा आगमन और निगमन से विलक्षण है । वह सम्पूर्ण तर्क शास्त्र का आधार है क्योंकि वह उस आपादन (Implication) या व्याप्ति के ज्ञान को प्रदान करता है जिस पर निगमनात्मक तर्क शास्त्र टिका हुआ है और जो आगमनात्मक तर्क शास्त्र का साध्य है। तर्क का यही जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 162
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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