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का कोई प्रयास नहीं किया गया था। यद्यपि इसकी सम्भावना के बीज आगम साहित्य में तथा तत्त्वार्थसूत्र में अवश्य ही उपस्थित थे। क्योंकि नन्दीसूत्र और विशेषावश्यक भाष्य में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, स्मृति, संज्ञा, प्रज्ञा और मति को पर्यायवाची मान लिया गया था। इसी प्रकार उमास्वामि के तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य में भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को एक ही अर्थ का वाचक माना था। मेरी दृष्टि में यहाँ इन्हें पर्यायवाची या एकार्थवाचक कहने का मात्र इतना ही है कि ये सब मतिज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं। उमास्वामि के तत्त्वार्थ भाष्य में ईहा के पर्याय के रूप में भी तर्क और ऊह इन दोनों शब्दों का स्पष्ट उल्लेख है। क्योंकि ईहा अवग्रहीत अर्थ (पदाथ) के विशेष स्वरूप को जानने की आकांक्षा के रूप में गुण-दोष विचारात्मक ज्ञान-व्यापार ही है, अतः उसका पर्याय तर्क या ऊह हो सकता है। फिर भी यहाँ तर्क को ईहा से पृथक एक स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना गया है। साथ ही ‘तर्क प्रमाण' में 'तर्क' शब्द का जो अर्थ गृहीत है वह भी यहाँ अनुपस्थित ही है। इससे प्रमाण चर्चा के प्रसंग में तर्क शब्द का जो अर्थ विकास हुआ है वह एक परवर्ती घटना ही सिद्ध होता है। फिर भी ये सब बातें एक ऐसी आधार भूमि तो अवश्य प्रस्तुत कर रही थी जिसके सहारे अकलंक के द्वारा 7वीं शती में तर्क को प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सका। वस्तुतः तर्क को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण मानना इसलिए आवश्यक हो गया कि उसके बिना व्याप्तिग्रहण की समस्या का सही हल प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं था क्योंकि प्रत्यक्ष चाहे वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष हो या अनिन्द्रिय मानस प्रत्यक्ष हो, त्रैकालिक एवं सार्वलौकिक व्याप्ति को ग्रहण नहीं कर सकता था। दूसरी ओर अनुमान तो स्वयं व्याप्ति पर निर्भर था, अतः प्रत्यक्ष और अनुमान के बीच एक सेतु की आवश्यकता थी जिसे तर्क को प्रमाण मानकर पूरा किया। 'तर्क' को प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित करने के साथ ही अकलंक के सामने दूसरी महत्वपूर्ण समस्या यह थी कि उसे साव्यावहारिक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में से किस प्रमाण के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जावे? चूँकि तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य में ईहा का अन्तर्भाव सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में होता था अतः सूत्रकार के मत की रक्षा करने हेतु उसका समावेश सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में ही होना था, किन्तु प्रत्यक्ष का ही एक भेद होने की स्थिति में तर्क व्याप्ति का ग्राहक नहीं बन सकता था। इस हेतु उसके बौद्धिक, विमर्शात्मक एवं सामान्य ज्ञानात्मक स्वरूप पर बल देना भी जरूरी था और यह तभी सम्भव था जबकि उसे शब्द संसर्ग युक्त एवं ऐन्द्रिक तथा मानसिक प्रत्यक्ष ने भिन्न स्वतन्त्र प्रमाण माना जावे, किन्तु ऐसी स्थिति में उसे परोक्ष प्रमाण में वर्गीकृत करना जरूरी था। अकलंक ने दोनों ही दृष्टिकोणों की रक्षा हेतु यह माना कि 'तर्क' आदि जब शब्द संसर्ग से रहित हो तो उनका समावेश जैन ज्ञानदर्शन
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